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कुप्रथा समाज की (कविता)






*अजय कुमार द्विवेदी* 


 


लिखना पढ़ना मै क्या जानूँ बस मन के भाव लिख देता हूँ।


जो हृदय में चलता है मेरे सब कागज से कह देता हूँ।


 


कुप्रथा समाज की देख सदा नैनों से जल बह जाता है।


चल गई अजब है रीति यहां अब जीव जीव को खाता है।


 


कहीं पे बच्चे भूखे सोते कहीं पे भोजन फिकता है।


कहीं जवानी नाचे कूदे कहीं पे बचपन रोता है।


 


मेहनतकश इंसान यहां जीवन भर ठोकर खाता है।


भ्रष्टाचार मे लिप्त जो मानव पैसा खूब कमाता है।


 


दरबारों की शोभा बढ़ती दौलतमंद अमीरों से।


दूरी बना कर रखता राजा भूखे और गरीबों से।


 


मद के नशे में चूर हो मानव मानव से ही जलता है।


कौन मित्र है कौन है दुश्मन पता नहीं कुछ चलता है।


 


फिर भी मन है मूरख इतना जाने क्यूँ इतराता है।


सबको ही अपना कह देता जिनसे भी हाथ मिलाता है।


 


*अजय कुमार द्विवेदी,E-4/347, Gali No-8, 4th Pusta, Soniya Vihar Delhi, Mo.8800677255







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