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 कन्याओं का एक दिन (कविता)






*श्वेतांक कुमार सिंह*


वो नवरात्रि हीं है


जिस दिन


उन्हें घर बुलाते हो


सादर बैठाते हो


काली और माँ दुर्गा


जैसा बनाते हो,


पूजते हो, सजाते हो


 इतनी श्रद्धा दिखाते हो।


 


अभी वो अबोध हैं


अनभिज्ञ तुम्हारे इरादों से


लेकिन पूरी दुनिया जानती है


तुम्हारी मंशा को,


क्यों एक दिन हीं


उन्हें ढूंढते हो


अपने से श्रेष्ठ बनाते हो।


 


मैं जानता हूँ


कोई भय है अदृश्य


जो घेरे बैठा है तुम्हें


छूता तो नहीं


पर परिधि से हीं


तुम्हें जकड़ कर रखता है।


थोड़ा लाचार भी है


तभी सिर्फ एक दिन


तुझे दुर्गा बना पाता है।


 


मेरी प्रार्थना है माँ


उस अदृश्य को


खूब ताकतवर कर दो,


इस समय


जो दिखता नहीं


वही डरा सकता है


स्त्रियों को जुर्म से


वही बचा सकता है।


 


मैं दिख जाता हूँ


आसानी से कहीं भी,


इसलिए अभी चुप हूँ, 


देखता हूँ उनकी पीड़ा


फिर भी अभी मूक हूँ।


मुझे भी पिघलाकर


अपने खड़ग में,


चक्र में या त्रिशूल में


पानी जैसा कर दो,


विलीन कर दो माँ।


 


मैं व्यभिचार देखता हूँ


कुछ कर नहीं पाता


एक हल्की सी आवाज भी नहीं,


सबको दिखता जो हूँ।


 


अपने साथ मुझे भी


कहीं अदृश्य कर दो माँ


मुझे भी 


उनका सम्मान बचाना है


सबको तेरे जैसा


मान दिलाना है।।


*श्वेतांक कुमार सिंह,(प्रदेश अध्यक्ष एन वी एन यू फाउंडेशन), बलिया, उ.प्र.मो.8318983664







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