*सविता दास सवि*
जान कितनी सस्ती हो
गयी ना लोगों की
या किसी धर्म
या दल का होना
ही अपराध हो गया
निरीह ,मासूमों के भी
बक्शा नहीं जाता
सियासत के युद्ध में
कानून किसी
कोने में पड़ा
सुबक रहा
आत्मसमर्पण के
कगार पर
मानव सम्वेदनाएँ
ये काली छाया
किस ग्रहण की है
जो खत्म नहीं हो रही
अधिकार मनुष्य
होने का भी
ग्रसित हो रहा
पाषाण ह्रदय हैं सारे
करुण, पुकार
शिशुओं की भी इनकी
आत्मा को नही छूती
नतमस्तक हूँ मैं
मांगती हूँ माफी उन सब
दिवंगत आत्माओं से
की मूक बनी रहीं
साक्षी बनी रहीं
इस अधम अन्याय को
देखते हुए
जड़ बन गयीं
चेतन को कहीं
मजबूरियों के गर्त में
दबाते हुए।
*सविता दास सवि,तेज़पुर, असम
शब्द प्रवाह में प्रकाशित आलेख/रचना/समाचार पर आपकी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया का स्वागत है-
अपने विचार भेजने के लिए मेल करे- shabdpravah.ujjain@gmail.com
या whatsapp करे 09406649733
0 टिप्पणियाँ