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बिन स्नेह बाती(कविता)



*डॉ रश्मि शर्मा*


ज़िन्दगी एक दीया,


और मैं उसकी बाती।


बिन स्नेह जिसकी ज्योत,


कभी जल ही न पाती।


जलाकर खुद को


जगमगाती है जग को।


मगर आह उसकी,


किसी को न समझ आती।


जगमगाहट उसकी,


खुद दीये को न भाती,


क्योंकि उसके हाथ तो सिर्फ,


गरमाहट है आती।


मगर ये गरमाहट ही उसे,


बिन स्नेेह है जलाती।


जगमगाती जिसे,


खुद जलकर बाती,


बुझाने इसे इसी जग की


आँधियाँ हैं आती।


ज़िन्दगी एक दीया,


और मैं एक बाती।


बिन स्नेह जिसकी ज्योत,


कभी जल ही न पाती।।


हैं सींचती जिसे दीये को,


खुद के अश्कों से बाती


उस मरूस्थल की प्यास कभी बुझ ही न पाती


ज़िन्दगी जल ही न पाती।


जगमगाहट में इसकी,


न समझ पाएगा जग ये


कि बचाती है सबको


किस तम से ये बाती।


अन्ततः खुद को ही,


जला लेगी ये बाती।


ज़िन्दगी एक दीया,


और मैं उसकी बाती,


बिन स्नेह जिसकी ज्योत


कभी जल ही न पाती।


*डॉ रश्मि शर्मा,उज्जैन





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