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रिश्तों का सच (कविता)



*मनीषा प्रधान मन*


दिल से निभाने की चाहत में ही


तमाम रिश्ते दम तोड़ जाते हैं


रूहों की तरह ही


सांसारिक नाते भी साथ छोड़ जाते हैं।


कितना भी सींच लो उनको


मुहब्बत के लहू से


मौका परस्त दुनिया है दोस्तों


खून के रिश्ते भी खून का सौदा कर जाते हैं


आज बेटा जब माँ से पूछता है


तेरे पालने का मोल क्या है


तो हम गैरों से क्यों


अनमोल रिश्तों की उम्मीद लगाए रखते है।


सच कहा था किसी शायर ने


हर रिश्तों की एक उम्र होती हैं


बीती सांसों का साथ मिलता नहीं दोबारा


दो पल के रिश्तों में उम्र गुजारा करते हैं


भाई बंधु सखा सब पलें हैं


एक उम्मीद के ही साये तले


कभी अजनबी बन अपने


अपनों को ही आईना दिखाया करते हैं।


रूह का संबंध है


उन रूहानी रिश्तों से


जो रूहों में ही रह कर


रूहों की पहचान कराया करते हैं


कौन अपना है कौन पराया है


ये वक़्त के फेर ने ही समझाया है


रिश्तों की आबरू को


अनमोल रिश्तों ने ही बेआबरू कराया है।


खुद को शराफत का नकाब पहना कर


भाई ही भाई को नाकाम बनाया करते हैं


ये रिश्ते ही तो हैं


सांसारिक ढांचों की पहचान


यहाँ पिता ही बेटी को बिदा कर


रूहानी रिश्तों से नाता तोडा करते हैं।


सच कह रही हूँ कड़वा कह रही हूँ


रिश्तों  को रूह से नहीं


स्वार्थ के मखमली चादर से ढका करतें हैं


*मनीषा प्रधान मन , रीवा 



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