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पीड़ा (कविता)





-मीनाक्षी सुकुमारन



 


कुछ दिन बिठाया

घर पर इतने मान सम्मान से

दिन रात की पूजा अर्चना

धूप ,अगरबत्ती ,दीये से

सुबह शाम हुई आरती वंदना

लगे भोग भी कई प्रकार के

फिर क्यों कर के विदा 

यूँ फेंक दिया कचरे सा

जैसे कोई अस्तित्व ही 

न रहा अब हमारा

दिल से जब करते हो

इतनी पूजा

इतनी श्रद्धा

इतनी भक्ति

फिर ऐसा अनादर क्यों

हर बार 

कचरे के ढेर में फेंक देते हो

अगले बरस फिर रिझाने को

भूल दुखता है मन देख यूँ

क्षतविक्षत शरीर अपना

करो न ये पाप हे मानव

होती है पीड़ा अंतर तक

देख ऐसी दुर्दशा हर बरस

देख ऐसा अनादर हर बरस।।

 

-मीनाक्षी सुकुमारन

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