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 मृगतृष्णा से आजादी(लघुकथा)







          -डाॅ क्षमा सिसोदिया


जब से उसने होश सम्भाला है, तब से सिर्फ भाग ही तो रही है।
कभी इस घर,तो कभी उस घर की पहचान बनती रही है।


        अभी-अभी आसमान पर  उसे एक श्वेत-श्याम बादल का एक टुकड़ा दिखा। उसने सोचा कि चलो उड़कर उस बादल के पास चलती हूँ। वह उसे अपनी मंजिल समझकर पूरी क्षमता से उड़ने लगी,लेकिन बादल तो ठहरा आवारा वह कभी यहाँ तो कभी वहां भागता रहा।


फिर वह सरसरसरररराती पवन के पीछे-पीछे भागने लगी।
तो वह उसे अपने चक्र के चक्रव्यूह में ही फँसाने लगा,थकी-हारी उसकी श्वास धौंकनी की तरह चलने लगी।


        उसने खुद के अंदर जलती हुई अग्नि को शीतलता देने के लिए चाँद की तरफ नजर उठाकर देखा तो, वह भी कभी छुपता तो कभी प्रकट होता रहा,कभी आधा तो कभी पूरा दिखता रहा।"


     "जीर्ण परम्पराओं के जंजीर में जकड़ी हुई अपनी सोच को  सुगंध से भरने की चाह में पुष्पित पौधों के पास गयी,लेकिन उसकी पंखुड़ियाँ तो कुछ देर में ही बिखर गयीं,और उसकी सुगंधों को पवन अपने साथ सुदूरवर्ती स्थानों पर लेकर चला गया।"


        'यहाँ-वहाँ भागते-भागते वह इतना थक चुकी थी कि धम्म से वहीं जमीन पर बैठ गयी,और अपने शरीर पर सजाए आधुनिक वस्त्रों की तरफ देखकर सोचने लगी कि इतने अथक प्रयास के बाद भी आज तक हाथ आया क्या...!!?,अब करू तो क्या करू कि.........?
           सोचते-सोचते अचानक उसका ध्यान खुद के पाँव की तरफ चला जाता है,तो वह देखती है,कि नीचे की जमीन तो वैसी की वैसी ही दिख रही है,वह तो अपनी जगह से अभी तक एक इंच भी नहीं खिसकी है।
          उसने अपने गर्दन को थोड़ा और नीचे झुकाया और कान लगाकर सुनने की कोशिश की तो धरती-माँ की कोख से बहुत ही मधुर आवाज़ आ रही थी,उसने उस आवाज़ को और ध्यान से सुनने की कोशिश की तो बस इतना समझ आया कि-
"क्षणभंगुर इस जीवन में पैरों के सिवाय,अगर अपना कोई है,तो वह है खुद का विवेक।और जिसका विवेक जाग्रत है,वह तो हर पल आजाद है।"


-डाॅ क्षमा सिसोदिया
10/10 सेक्टर बी, महाकाल वाणिज्य केंद्र,  उज्जैन - 456010






 


 



 



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