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जिंदगी इतनी आधुनिक हो गई(कविता)


 



*संजय वर्मा 'दॄष्टि'*

 

इशारों की रंगत खो क्यूँ गई 
चूड़ियों की खनक और खांसी के इशारे को 

शायद मोबाईल खा गया 

घूँघट की ओट से निहारना 

ठंडी हवाओं से उड़ न जाए कपडा दाँतों में दबाना 

काजल का आँखियों में लगाना

क्यूँ छूटता जा रहा व्यर्थ की भागदौड़ में 

श्रृंगार में गजरें, वेणी रास्ता भूले बालों का 

प्रिय का सीधा नाम बोलने की बातें 

कुछ खाने पीने के लिए बच्चों के हाथ भेजना 

साड़ी -उपहार छुपाकर देने की आदते 

ऑन लाइन शॉपिंग निगल गई 

हमारे पुराने ख्यालात में 

प्रेम मनुहार छुपा था 

नए ख्यालातों को दिखावा निगल गया 

बैठ कर खाने, पार्को में पिकनिक मनाने के समय को 

शायद इलेक्ट्रानिक बाजार निगल गया

इंसान तो है मगर समय बदल गया 

या तो समय के साथ हम बदल गए 

सुख चैन अब कौन सी दुकान पर मिलता 

हमे जरा बताओं तो सही 

दिखावा और बेवजह की मृगतृष्णा सी दौड़ में 

हमारी आँखों से आंसू भाप बनकर 

चेहरे पर मुस्कान से बनने वाले 

गालों में पड़ने वाले गड्ढों को 

भागदौड़ भरी शैली निगल गई 

क्या जिंदगी इतनी आधुनिक हो गई 

 

*संजय वर्मा 'दॄष्टि',मनावर (धार ) मो. 9893070756 

 

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