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हिंदी की विनती(व्यंग्य)


*डॉ हरीशकुमार सिंह*


            जिस दिन भारत के संविधान में मुझे राजकाज की भाषा, राजभाषा बनाने का निर्णय लिया गया था मुझे लगा था कि आज ना सही पंद्रह वर्षो के पश्चात मैं राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित कर दी जाऊँगी मगर जब पंद्रह वर्ष पूर्ण हुए तो यह कहकर कि अभी मेरी राष्ट्रव्यापी स्वीकार्यता नहीं हुई है मुझे राष्ट्रभाषा बनने से फिर रोक दिया गया तथा आज भी सत्तर वर्षो के बाद भी मै अंग्रेजी के साथ केवल राजभाषा ही बनी हुई हूँ | आपके देश का राष्ट्रगान है, राष्ट्रध्वज है, राष्ट्रीय मुद्रा है , राष्ट्रीय चिन्ह है, राष्ट्रीय खेल है ,राष्ट्रीय पक्षी है, राष्ट्रीय नदी , और राष्ट्रीय पशु तक है मगर राष्ट्रीय भाषा क्यों नही है | भारत के अलावा दुनिया का शायद ही कोई ऐसा देश होगा जिसकी अपनी राष्ट्रभाषा नही है | मैं  विश्व में बोली जाने वाली दूसरी बड़ी भाषा हूँ तथा विदेशों के विश्वविध्यालयों तक में पढ़ाई जाती हूँ | मेरे नाम पर देश में तो ठीक विदेशों में विश्व हिन्दी सम्मेलन करने पर संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव हिन्दी में अपना भाषण दे सकते है और अमेरिका में हिन्दी के विकास के लिए मिलियन डालरो के खर्च का प्रावधान किया जाकर मेरा गौरव बढ़ते देख सकते है मगर अपने देश में राष्ट्रभाषा बनाने के लिए कोरे संकल्प प्रतिवर्ष जरूर करते है| संयुक्त राष्ट्रसंघ की सातवीं आधिकारिक भाषा मुझे बनाने की वकालात करने वालो से निवेदन है की पहले अपने देश में तो मुझे राष्ट्रभाषा बनवा दें |


               मेरे नाम पर तीस सदस्यो की समिती प्रतिवर्ष देश विदेश में हवाई दोरे  करती है मगर कभी मुझे पूर्ण रूप से अकेले राष्ट्रभाषा बनाने की अनुशंषा नहीं की | मेरा विरोध देश में कही नहीं है| पूरे देश की पचहतर प्रतिशत आबादी मुझे जानती, समझती और बोलती है | मेरा जितना गुणगान हिन्दी के साहित्यकारो ने किया उतना ही अहिंदीभाषी साहित्यकारो , विद्वानों  ने भी किया है | पोरबंदर में जन्मे अहिंदी भाषी मोहनदास करमचंद गांधी हों या आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती सबने मेरे विकास के लिए प्रयास किए | प्रसिद्ध ' ओम जय जगदीश हरे 'आरती हिन्दी में लिखने वाले पंजाब के श्री श्रद्धाराम फिल्लोरी थे तो हिन्दी में रानी केतकी की कहानी लिखने वाले कोलकाता के शिक्षक इंशाअल्ला खान थे |मेरी भाषा की फिल्मों को ही देख लीजिये पूरे दक्षिण से लेकर पड़ोसी देश तक हिन्दी में ही देख समझ लेते है | ईलेक्ट्रोनिक और प्रिंट मीडिया की सबसे प्रिय भाषा मैं ही हू | हिंदी के समाचार पत्रो ने आंग्ल भाषा के समाचार पत्रो को काफी पीछे छोड़ दिया है तथा सभी प्रमुख टेलीविजन चैनलों की एक ही भाषा है हिंदी, फिर भी मैं  राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन पा रही हूँ| मुझे विज्ञापन और मुनाफे की भाषा बनाने में किसी को कोई आपत्ति नही है मगर मेरे स्वाभिमान की चिंता किसे है |


      मुझे सबसे ज्यादा शिकायत तो अपने कर्ताधर्ताओं से ही है | आज भी संविधान के  हिन्दी संस्करण को ये अँग्रेजी संस्करण का पर्याय  नहीं बना पाये | हिन्दी में प्रचार कर वोट मांगने वाले राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्र आंग्ल भाषा में जारी करते है और हिंदुस्तानी राजनेता आंग्ल भाषा में भाषण देते है | संसद के सर्वोच्च सदनो में अधिकांश कार्यवाही आंग्ल भाषा में आज भी हो रही है | देश की जनता को न्यायालयों में न्याय उनकी भाषा मे आज भी नहीं मिल पा रहा है | हिंदी के सरकारी स्कूलो की हालत पर मुझे शर्म आती है और आंग्ल भाषा के कान्वेंट स्कूलों की नजाकत देखते बनती है |  कार्यालयो में हिंदी मे काम करने और राजभाषा अधिनियम का सम्मान करने का ठेका ऊपर के अधिकारियों ने बाबू लोगो के जिम्मे कर दिया है तथा खुद बरी हो जा जाते है | पढ़ाई, लिखाई और नौकरी का मामला हो तो मुझे अपनी सौतन आंग्ल भाषा से आपकी मोहब्बत करने से कोई ऐतराज नहीं है मगर बाकी जगह तो मुझे सम्मान दिया ही जाना चाहिए | आँख में किरकरी आने पर जिस तरह हम बेचैन हो जाते है उसी तरह मुझे राष्ट्रभाषा  घोषित नही किये जाने पर जिन्हें बेचैनी होती हे वे ही मेरे सच्चे हितैषी है | हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा, और हिंदी मास भले  ही देश भर के सरकारी कार्यालयो में अगाध श्रद्धा से मनाये जाये मगर मुझे तो उस दिन परमशांति मिलेगी जिस दिन मैं पूरे राष्ट्र की राष्ट्रभाषा संवैधानिक रूप से बनूँगी तथा आंग्ल भाषा के किसी परिपत्र के अंत में यह लिखा पाऊँगी- 'विवाद की स्थिति में इस परिपत्र का हिंदी संस्करण ही मान्य होगा'।


*डा हरीशकुमार सिंह, उज्जैन


 


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