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हमारी अभिव्यक्ति का प्राण है हिन्दी


             -संदीप सृजन


हिंदी भाषा भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। यह हम भारतीयों की पहचान है। भारत में अनेक भाषाएं हैं मगर फिर भी हिंदी का प्रभाव सर्वत्र देखा जा सकता है। विश्वभर में करोड़ों लोग हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं। हिंदी भाषा एक ऐसी भाषा है,जिसमें जो हम लिखते हैं,वही हम बोलते हैं उसमें कोई बदलाव नहीं होता है। हिंदी भाषा की सहयोगी लिपि देवनागरी इसे पूरी तरह वैज्ञानिक आधार प्रदान करती है। हिंदी को समृद्ध करने में सबसे बड़ा योगदान संस्कृत का है। संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन भाषा मानी गई है और हिंदी का जन्म संस्कृत की कोख से ही हुआ है। कई संस्कृत शब्दों का प्रयोग हिंदी में बिना किसी परिवर्तन के किया जाता है,उन शब्दों का उच्चारण और ध्वनि भी संस्कृत के समान ही है। इस कारण हिंदी को एक विशाल शब्द कोष जन्म के साथ ही संस्कृत से मिला है,जो उसके अस्तित्व को विराट बनाता है।


भारत के सांस्कृतिक मूल्यों पर जब भी हमले हुए तो हिंदी भी इससे अछूती नहीं रही। हिंदी भाषा पर अनेक जुल्म हुए हैं और अनेक आक्रांता तथा अंततः अंग्रेज हमारी भाषा को खत्म करने की कोशिश कर चुके हैं,मगर फिर भी हिंदी में कुछ बात है कि वे इस जन-जन की भाषा को मार नहीं पाए। वस्तुतः हिंदी वह भाषा है जो भारत में लोगों की अभिव्यक्ति का प्राण है। हिंदी एक ऐसी भाषा है जो आसानी से लोगों की जुबान पर चढ़ जाती है। हिंदी भाषा तमाम झंझावतों के बावजूद अब तक जीवित है तो उसका एक और कारण यह है कि हिंदी भाषा ने अपने अंदर अनेक भाषाओं के शब्द समाहित कर लिए हैं।


हिंदी यूँ तो हमें परम्परा से मिली भाषा है,इस कारण से इसे पैत्रृक सम्पत्ति ही माना जाना चाहिए । जब हम छोटे बच्चे थे और बोलना सीख रहे थे,उस समय हमारे परिवेश की जो भाषा थी वह उम्र के किसी भी पड़ाव पर जाने के बाद भी सहज और सरल ही लगती है।मगर अब लगता है कि अंग्रेजी का प्रभुत्व हिंदी पर प्रभाव डाल रहा है। हिंदी का अस्तित्व तभी रहेगा जब हम उसे दिल में बैठा कर ही रखेंगे । हमें अगली पीढ़ी तक हिंदी को प्रभावी स्वरुप में पहुंचाना होगा। याद रहे बोलने वालों की, समझने वालों की संख्या में जब वृद्धि होती है, तो भाषा का विस्तार होता चला जाता है। भाषा मानव संरचित एक माध्यम है,कोई भी भाषा उतनी ही विस्तृत हो पाती है जितने उसके प्रयोग करने वाले हों,एक विस्तृत भाषा अगर हमारी मातृभाषा है तो हमारे सोचने,समझने और अलग-अलग आयामों को धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है। हिंदी के साथ यही होना चाहिए।


बहत्तर साल की स्वतंत्र राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था के बाद भी देश में कई मुद्दे आज तक उलझे हुए हैं, जिनका समाधान केन्द्र सरकार नहीं कर पा रही है। जनता की मांग दो तरफा होने से सरकार ने भी आधे अधूरे निर्णयों को ही निरंतर बनाए रखा है। जिनमें से एक मुद्दा है हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का, हालांकि हिंदी को संविधान के भाग 17 में अनुच्छेद 343 से 351 तक राजभाषा का दर्जा तो दे दिया गया लेकिन राष्ट्रभाषा के रूप में अधिकारिक मान्यता के लिए हिंदी आज भी प्रतिक्षारत है।


भारत में कई समितियां, कई योजनाएं हिंदी के नाम पर बनीं लेकिन वे अंग्रेजी के सामने बौनी ही साबित हो रही हैं। सरकारी कार्यालयों में चाहे यह लिखा हो कि हम हिंदी में कार्य करना पसंद करते हैं या हिंदी में आपके द्वारा भरे गए आवेदन पत्रों का स्वागत है। लेकिन उनकी आंतरिक व्यवस्था आज भी अंग्रेजी पर ही निर्भर करती है। आखिर क्या वजह है कि हमारी सरकार हिंदी को चाहते हुए भी अधिकारिक राष्ट्रभाषा घोषित नहीं कर पा रही है। हिंदी की वर्तमान व्यवस्था को जानने और समझने से पहले हिंदी के जन्म से लेकर आज तक के सफर पर यदि दृष्टि डाली जाए तो पता लगेगा हिंदी ही एक मात्र भाषा रही है जिसके कारण बहु संस्कृति और बहु सभ्यता वाला भारत जुड़ा रहा वरना आज भारत टुकड़ों-टुकड़ों में बंटा होता। आज जो भारत के प्रदेश दिख रहें हैं वे सब स्वतंत्र देश के रूप में होते अगर हिंदी न होती तो।


हालांकि गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी का विरोध जम कर किया जा रहा है । वहॉ के लोग अपनी बोली, अपनी लिपि को बचाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं, इस पर जमकर राजनीति हो रही है। ऐसी खबरें अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में मसाले के साथ आ रही है। पर हिंदी भाषी लोग गहरी नींद में हैं उनके कानों पर जूं भी रेंगी हो ऐसा नहीं लग रहा है। क्योंकि सालों से हिंदी के नाम पर केवल साहित्य और अख़बार जगत के लोग ही कागज़ी घोड़े दौड़ाते आ रहे हैं। आम आदमी को हिंदी के लिए हो रहे आंदोलनों में कोई रूचि नहीं है । कुछ संस्थाएँ बंद कमरों में और कुछ छोटे -मोटे आयोजन कर हिंदी दिवस आने पर हिंदी के संघर्ष की कहानी अख़बारों में छपवा कर लोगों को जागृत करने की कोशिश कर भी रही हैं लेकिन उनकी स्थिति नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह है जो पड़ोस में बैठे व्यक्ति को भी सुनाई नहीं देती है।


यह निश्चित रूप से वैश्विक आश्चर्य की बात है कि भारत की 72 साल की आजादी के बाद भी देश की अपनी कोई अधिकारिक भाषा नहीं है। हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो प्राप्त है लेकिन अंग्रेजी और श्रेत्रीय भाषा के समान अधिकारिक  नहीं माना जाता है। देश में तमिल, तेलगू, मलयालम, कन्नड़ ,गुजराती, मराठी, बांग्ला के साथ अंग्रेजी को सहर्ष स्वीकार किया जा रहा है लेकिन हिंदी को पसंद नहीं किया जा रहा है। भारत में हिंदी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा होने के बावजूद अपने वर्चस्व के लिए सालों से संघर्ष कर रही है । वजह है राजनैतिक इच्छा शक्ति का अभाव। भारत की विविधताओं का सबसे ज्यादा लाभ उठाया है राजनैतिक दलों ने और अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए गलत को भी सही ठहराते रहते हैं । दक्षिण भारत में हिंदी का जितना विरोध हो रहा है वह आमजन के बजाए राजनैतिक स्तर पर अधिक हो रहा है । अपने लाभ के लिए श्रेत्रीय दल हिंदी को अधिकारिक भाषा नहीं बनने देना चाहते हैं । क्योंकि हिंदी पूरे देश को एक सूत्र में बांधें रख सकती है और देश एक सूत्र में बंधा तो श्रेत्रीय दलों की दाल गलना बंद हो जाएगी। राजनैतिक स्वार्थ के चलते हिंदी को संघर्ष करना पड़़ रहा है, हिंदी भाषी लोग कभी अन्य भाषाओं के विरोधी नही रहे हैं,और न ही कभी अपनी भाषा अन्य भाषा बोलने वालों पर थोपी हैं ।


वर्तमान सरकार पूरे बहुमत के साथ संसद में आरुढ़ हुई, जनता ने भी पूर्व में सरकार द्वारा किए गये कार्यों पर विश्वास जताया है । तो अब सरकार का दायित्व बनता है कि देश को एक सूत्र में बांधे । एक सूत्र में देश को बांधने का काम आसानी से यदि कोई कर सकता है तो वह है हिंदी भाषा ।
संसद मे बैठे माननीय जनों को चाहिए कि वे यह बात सदन में रखें कि अब समय आ गया है कि हिंदी को राजभाषा के साथ राष्ट्रभाषा घोषित किया जाना चाहिए।


-संदीप सृजन


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