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ज्ञान और चापलूसी(कविता)



*डॉ. अनिता सिंह*
ज्ञान और चापलूसी में एक बार होने लगी झड़प।
ज्ञान ने कहा -हर जगह मेरी इज्ज़त है तू पीछे हट।
चापलूसी तिलमिलाई, इठलाई फिर बोली-
देखना चाहता है मेरी इज्ज़त तो मेरे साथ चल।
ज्ञान भी गर्व से अकड़कर,
चापलूसी के पीछे दिया चल,और कहा-
तू मेरे ज्ञान को देखना चाहती है तो,
विद्या मंदिर में चल, जहाँ सरस्वती का है स्थल।
दिखाता हूँ मैं तुझे ज्ञान का खजाना।
जहाँ चापलूसी का नहीं कोई ठिकाना।
चापलूसी मुस्कुरायी और बोली-
तू कहीं भी चल, हर जगह मैं ही तुमसे ऊपर।
विद्या मंदिर में एक से बढ़कर एक ज्ञानी।
विद्वता से लरबेज, जिसका कोई नहीं सानी।
चापलूसी ने भी नये तेवर दिखाए।
ज्ञानी नीचे की पंक्ति में आए।
क्योंकि ज्ञानी के पास सिर्फ ज्ञान था।
इसके सिवा दूजा नहीं औजार था।
इसलिए वह जंग हार गया।
फिर पीछे की पंक्ति में आ गया।
निराशा, कुंठा ने था उसे अब घेरा।
क्योंकि अब ज्ञान था अकेला।
चापलूसी के पास तरह -तरह के हथियार थे।
इसलिए आज सभी उसके साथ थे।
ज्ञान को पीछे छोड़ आगे बढ़ गयी।
चापलूसी थी माहिर इसलिए आगे निकल गयी।
ज्ञान के लिए बचा सिर्फ एक कोना है।
चापलूसी सबके हाथ का खिलौना है।
इसलिए तो सबको भाती है।
ज्ञान को पछाड़ आगे बढ़ जाती है।
यही है यथार्थ, जीवन की सच्चाई है।
ज्ञान और चापलूसी की लड़ाई है।
ज्ञान तो ज्ञान है,
उसे भी उठकर फिर से आगे बढ़ना होगा।
चाहे चापलूसी का खेल कितना भी घिनौना होगा।


*डॉ. अनिता सिंह,बिलासपुर छत्तीसगढ़,मो. 9907901875



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