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देशी (संस्मरण)







*कपिल शास्त्री*

 

घण्टा मंदिर का नहीं पिज़्ज़ा हट का था।जिस बच्ची की ज़िद पर कि"पापा,मुझे भी बजाना है।"कभी गोद मे उठाकर बजवाते थे वही आज बीस साल बाद कॉर्पोरेट कल्चर के इस नए रिवाज़ से परिचित करवा रही थी कि"अगर पिज़्ज़ा अच्छा लगे तो इसे बजा कर बाहर निकलनाहै।"परंपरा उल्टी हो गयी थी।घुसते समय नहीं निकलने पर बजाना है।कभी वो मासूम थी,भोली थी आज वही मैं बन गया था।"हौ बेटा"बोलकर मैंने भी नए जमाने की हवा के साथ- साथ घटा के संग-संग चलने का आश्वासन दे दिया था।अनमने से प्रवेश करने पर पत्नी ने झिड़का भी था"क्या रोज़ रोज़ दाल चावल,साग रोटी खाना,ज़िन्दगी में कुछ तो अलग होना चाहिए,समथिंग डिफरेंट,तुम्हारे इसी रवैय्ये के कारण क्वालिटी टाइम कितने दिनों से नहीं जिया।"

पत्नियों की आपस मे अच्छी घुट रही थी।

बच्चो की फरमाइश पर कुछ एक्स्ट्रा चीज़ वाले आर्डर किये गए।

हँसने की कोशिश में चेहरा विकृत होता जा रहा था।एक थेगडा सा कहीं चिपका हुआ था जो असहज कर रहा था जैसे मखमल में टाट का पैबंद हो।

तिकोने तोड़ते वख्त लगा जैसे ये एक्स्ट्रा चीज़ में ही कहीं लिपड चिपड हो गया हो।सब्जी का मोलभाव करती माँ,बिजली के भारी बिल से डरे हुए एक्स्ट्रा कमरों की बत्ती बुझाते पिताजी,पटे पर बैठकर माँ के हाथों के गरमा गरम फुल्के और ये कहना कि "ले और खा ले"कितना एक्स्ट्रा था ज़िन्दगी में!कहाँ खो गया!तमाम यादें इसमें घुलिमिली सी लगी।पिताजी आज होते तो इस मॉल में धोती कुर्ते वाले एकमात्र व्यक्ति होते।चश्मे के पीछे से आँखों से डराकर पूछते "ये मांसाहारी तो नहीं है?"मैं सामने दिख रहे के.एफ.सी. को दिखाकर बोलता "नहीं,वो मांसाहारी है।"मोटी कमर वाली,सीधे पल्लू की साड़ी पहनने वाली माँ का रक्तचाप एसकेलेटर पर चढ़ते समय बढ़ जाता।नज़ीर अकबराबादी भी होते तो बोलते-"टुकड़े चबा रहा है वो भी है आदमी,और इधर टुकड़े चबा रहा है वो भी है आदमी।"हमारी चाची अम्मा होतीं तो उस चपटे गोले के आसपास अंचली छोड़ती,नमस्कार करती,एक टुकड़ा गाय के लिए एक कुत्ते के लिए निकालती फिर खाती।इन प्राणियों के लिए कुछ नहीं था परंतु हर टुकड़े में से जी.एस. टी.में जाता हुआ दिखा।

सब राइट टाइम पर दुनिया से एग्जिट मार गए।न एसकेलेटर पर चढ़ पाए,न स्मार्ट फ़ोन्स देख पाए। एग्जिट द्वार के बाहर आकाश से झाँकते हुए दिखे।माँ देखकर बोल रहीं थी "हम तो बिना एस्केलेटर के ही ऊपर पहुँच गए,अरे वाह,तू तो बड़ा धन्ना सेठ हो गया है!मैं रोकर बोल रहा हूँ-"नहीं माँ, मुझे वही गरमागरम फुल्के चाहिए जो तुम उतारती थी।वैसे इस पुण्यतिथि पर ज़रूर पिज़्ज़ा का भोग लगाऊँगा, खीर पुड़ी तो बहुत खा चुके हो।"

 

टुकड़े चबाने का ढाई हजार बिल जब मित्र ने शान से व्यापारिक ठसक के साथ चुकाया तो जी और कड़वा-कड़वा हो गया।घंटा बजाने के लिए हाथ घंटा नहीं उठ सका।

 

"कहाँ खो गए।"पत्नी की आवाज़ से तंत्रा भंग हुई।

 

अब श्रीमतीजी ज़रूर सुनाएंगी "पता नहीं तुम्हारी माँ ने क्या खा कर तुम्हें पैदा कर दिया और मेरे सर मढ दिया,एकदम उल्टी खोपड़ी के हो,जहाँ गंभीर रहना चाहिए वहाँ हँसी मजाक और जहाँ चार लोगों के बीच हँसना बोलना चाहिए वहाँ तुम्हारा मुँह लटक जाता है।"

इस थेगड़े का भी कुछ न कुछ नाम तो होगा!हाँ हैं ना!घर लौटकर दाल चावल में अचार डालकर खाने से मिली तृप्ति ने बताया-इसका नाम है-"देशी।"

 

*कपिल शास्त्री,निरुपम रीजेंसी,एस-3/231ए/2ए साकेत नगर,भोपाल (म.प्र.) पिन:462024मो.:9406543770.


 




 


 



 



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