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भाषा एवं लिपि की विविधता और एकरूपता और उसका निदान(लेख)


*डॉ. अरविन्द जैन* 


इंडिया में भाषा की लड़ाई लड़ते  हुए लगभग १०० वर्ष से अधिक हो गया हैं और स्वंत्रत हुए ७० वर्ष से अधिक ,भाषा जैसे इस देश में कोई रोग हो गया हैं ,संक्रामक रोग जिसका इलाज़ सरकारों के पास नहीं हैं और जनता तो जहाँ लाभ देखती हैं वहां जाती हैं .जैसे आज संस्कृत को कोई नहीं पढ़ना चाहता ,कान्वेंट संस्कृति ने हिंदी की हालत बहुत दयनीय कर दी हैं .
आज जब हम ३ वर्ष के पहले से के. जी. में डालते हैं तो वहां अंग्रेजी का माहौल बनाकर उन बच्चों में अंग्रेजी के संस्कार डालते हैं तो वहां वे अंग्रेजी के अभ्यस्त होते हैं और माध्यम श्रेणी और सामान्य वर्ग में हिंदी का माहौल घर में रहता हैं .इस प्रकार अधकचरे ज्ञान वाले हो जाते हैं .और उसी वातावरण में रहकर आगे पढ़ते जाते   हैं जिससे उन्हें अंग्रेजी सुगम महसूस होती हैं और हिंदी को उनके मन में उपेक्षा का भाव आने लगता हैं .यह बहुत गंभीर समस्या बनती जा रही हैं .
भारत जैसी बहुभाषी व बहुलिपि वाले देश में भाषाई समस्या के मद्‍देनजर कई बार कश्मीर से कन्याकुमारी और अरुणाचल से कच्छ तक एक ही लिपि अपनाने की बात कही जाती रही है। राष्ट्रीय एकीकरण और संवाद के सरलीकरण के दृष्टिकोण से प्रथम दृष्ट्‍या यह सोच सही मानी जा सकती है। शायद इसीलिए इस देश के महान सपूतों ने अपनी लेखनी, अपनी वाणी के माध्यम से इस बात का पुरजोर समर्थन किया है।
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने 'हरिजन सेवक' में लिखा है 'बंगाली में लिखी हुई गीतांजलि को सिवा बंगालियों के और पढ़ेगा ही कौन'। यह निर्दयता नहीं तो और क्या है कि देवनागरी के अतिरिक्त तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, उड़िया तथा बंगाली इन छ: लिपियों को सीखने में दिमाग खपाया जाए।
आचार्य विनोबा भावे के अनुसार देवनागरी लिपि हमारे लिए रक्षा कवच है। इसी बात को समझाते हुए वे लिखते हैं 'यदि हम सारे देश के लिए देवनागरी को अपना लें तो हमारा देश बहुत मजबूत हो जाएगा, फिर तो देवनागरी ऐसा रक्षा कवच सिद्ध हो सकती है, जैसी कोई भी नहीं हो सकती।'
पंडित जवाहरलाल नेहरू का मत थोड़ा-सा जुदा है, वे लिखते हैं 'देवनागरी को समूची भारतीय भाषाओं के लिए अतिरिक्त लिपि के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए। इससे एक राज्य के निवासी दूसरे राज्य की भाषाएँ आसानी से सीख सकेंगे, क्योंक‍ि असली कठिनाई भाषा की उतनी नहीं है, जितनी लिपि की है।' पंडितजी का वक्तव्य उनकी राजनीतिज्ञ-कूटनीतिज्ञ की छवि से बहुत कुछ मेल खाता है। एक शब्द 'अतिरिक्त' का प्रयोग कर उन्होंने मध्यम मार्ग अपना लिया है।
एक अन्य महान् व्यक्तित्व दयानंद सरस्वती कहते हैं - 'मेरे नेत्र तो वे दिन देखना चाहते हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक नागरी अक्षरों का ही उपयोग और प्रचार होगा।'
जाहिर है स्वामीजी की सोच वर्तमान भारत में देवनागरी के उपयोग के बजाय तत्कालीन भारत जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के बारे में भी रही होगी। कुछ पाश्चात्य दृष्टिकोण वाले विद्वतजन रोमन लिपि के उपयोग के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हैं। वे उपमहाद्वीपीय सोच के बजाय अंतरराष्ट्रीय उपयोगिता के बारे में ज्यादा चिंतित हैं।
ब्रह्मा ने अपनी अक्ल से विभिन्नता का सृजन किया है - वनस्पति जगत और जीव जगत की विविधता से तो आप सब लोग वाकिफ हैं ही। सांस्कृतिक विविधताएँ हमारा मन मोह लेती हैं। सामाजिक विभिन्नताएँ हमें प्रवास करने को उत्प्रेरित करती हैं। हम कुछ नया देखने के लिए नया सुनने के लिए आतुर हो जाते हैं।
सा‍माजिक सरोकार के हर कदम पर नए की जरूरत रहती है तो नई भाषा सीखना भी तो नयापन है, एक सामाजिक जरूरत है, जो मुख और लिपि दो माध्यमों से व्यक्त होती है। हम क्यों बचना चाहते हैं इस नएपन से, जो सामाजिक आवश्यकता के अलावा एक नई चुनौती भी है।
जरूरत है दो चीजों की - लिपि सीखने का व्यवस्थित तरीका और ट्रांसफर और लर्निंग (पूर्व ज्ञान का स्थानांतरण)
दूसरे, यदि हम एक ही लिपि की कोशिश करते हैं तो कुछ वर्षों बाद या ऐसा कहें कुछ पीढ़ियों के बाद लोग अपनी भाषा की मूल लिपि भूल जाएँगे और मूल लिपि में लिखा गया सब कुछ सिंधु घाटी की सभ्यता की लिपि की मानिंद हो जाएगा।
भारत जैसे देश में हमारी मानसिक स्थिति ऐसी नहीं है कि हम दूसरों की चीज आसानी से पचा  लें। हमारे लिए दूसरों की खान पान  अपचन का कारण बन जाती है। दूसरों की सांस्कृतिक विरासत सिर्फ नएपन के तौर पर अच्छी लगती है, पर रोजमर्रा की जिंदगी में सिर्फ अपना और सिर्फ अपना ही चाहिए तब लिपि भी कहाँ अछूती है। हम क्यों छोड़ें अपनी दूसरों के लिए। हर वाक्य हर आम और खास को प्रेरित करेगा सिर्फ अपनी ही अपनाने के लिए।
लिपि के मामले में अंतिम पर महत्वपूर्ण बात जो हमारे सामाजिक परिवेश से जुडी हुई है 'किसी भी मुस्लिम बहुल मोहल्ले में चले जाइए, हर जगह उर्दू में लिखे पोस्टर चिपके मिल जाएँगे। इन हर्फों को समझना आपके-मेरे लिए नामुमकिन होगा। जब कुछ लोग अपनी बात कुछ अपनों से ही कहना चाहते हैं, दूसरों के साथ बाँटना नहीं चाहते हों तो क्यों करेंगे नागरी का उपयोग।  
लिपि के मामले में समानता की बात करना सिर्फ बेमानी है। पूर्णतया आकाश कुसुम तोड़ने की तरह है। क्योंकि भाषा सीखना न तो ब्रायन लारा की 400 रनों वाली मैराथन पारी है, न ही एडमण्ड हिलेरी-तेनसिंह नोरके की एवरेस्ट पर चढ़ाई की तरह। यह तो एक छोटी सी चुनौती है। अज्ञात को ज्ञात करने का अनुभव है, दूसरों की बगलों में झाँकने की कोशिश है, बेगानों को अपना बनाने की स्वैच्छिक प्रक्रिया है। इस चुनौती को स्पोर्ट्‍समैन स्प्रिट से ग्रहण करने पर सीख की प्रक्रिया में आनंद आएगा, नए रस का संचार होगा और एकीकरण की प्रक्रिया में सब कुछ गड्‍ड-मड्‍ड हो जाएगा।
इस सबके पीछे मूल कारन जैसे ही देश स्वतंत्र हुआ था उसी समय अन्य राष्ट्रों जैसे हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा घोषित करना था पर अंग्रेजित मानसिकता धारी नेताओं के कारण नहीं सका .दूसरी सबसे बड़ी भूल इंडिया की जगह भारत ,भारतवर्ष या हिंदुस्तान नामकरण होना था .अभी भी हम भारतीय असभ्य ,गंवार ,अशिक्षित और लड़ाकू माने जाते हैं .आप इंडियन का अर्थ ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोष में ढूंढ ले .
क्या हम अन्य प्रान्तवासियों के कारण हिंदी राष्ट्रभाषा का सपना ही देख पाएंगे .इस कारण अंग्रेजी का बोलबाला बढ़ता जा रहा हैं।



*डॉ अरविन्द प्रेमचंद जैन, संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104  पेसिफिक ब्लू, नियर डी मार्ट. होशंगाबाद रोड ,भोपाल 462026  मोबाइल 09425006753


 

 

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