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बालमन के कुशल चितेरे : रमेश चन्द्र शाह






*डॉ.प्रीति प्रवीण खरे*
साहित्यिक रुझान के चलते तथा पढ़ते-लिखते रहने के शौक़ ने मुझे कई ख्याति प्राप्त लेखकों से मिलवाया,उनकी सृजन धर्मिता के बारे में जानने का सुअवसर भी मिला।इसी कड़ी में मेरी मुलाक़ात श्री रमेश चंद्र शाह जी से हुई।बातों ही बातों में मैंने जाना उम्र के इस पड़ाव में भी पद्मश्री शाह साहब के भीतर बाल सुलभ कौतुकी वृत्ति आज भी यथावत है।वे कहते हैं-'बाल साहित्य लिखने के लिए साहित्यकार को बच्चा बनना पड़ता है।
आज मैं आपको एक ऐसे साहित्यकार से परिचित करवाने जा रही हूँ जिनका जन्म 4 मई,सन 1936 को अल्मोड़ा उत्तराखंड में हुआ,शिक्षा अल्मोड़ा तथा प्रयाग विश्वविद्यालय में।सन् 1997 में शासकीय महाविद्यालय,भोपाल में अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत हुये।साहित्य की अनेक विधाओं में निरंतर सृजनरत श्री शाह की बहुमुखी प्रतिभा को पहले भी अनेक महत्वपूर्ण पुरस्कारों एवं अलंकरणों से सम्मानित किया जा चुका है। इनमें 'कहानी' पत्रिका का सर्वश्रेष्ठ कहानी पुरस्कार (1974)सृजनात्मक उपलब्धियों के लिए मध्य प्रदेश शासन के संस्कृति विभाग का शिखर सम्मान तथा राष्ट्रीय
मैथिली शरण गुप्त सम्मान (2004),प्रतिष्ठित पद्मश्री सम्मान ,(1987-88)में उपन्यास गोबरगणेश पर मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद का वीर सिंह देव अखिल भारतीय पुरस्कार तथा उपन्यास 'पूर्वापर' के लिए भारतीय भाषा परिषद कोलकाता द्वारा (1994) में प्रदत्त पुरस्कार शामिल हैं।उ.प्र द्वारा (2018)में भारत भारती सम्मान।श्री शाह को के.के. बिड़ला फ़ाउंडेशन के 'व्यास सम्मान' से तथा केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा के महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार से भी अलंकृत किया जा चुका है।आपकी अब तक प्रकाशित कृतियाँ-उपन्यास:गोबरगणेश (प्र.सं.1977)क़िस्सा ग़ुलाम (1986),पूर्वापर (1990),आख़री दिन (1992),पुनर्वास (1996)कहीं नहीं रहते विभूति बाबू (2001),विनायक (2008),कथा सनातन (2011),कहानी संग्रह :'जंगल में आग','मुहल्ले का रावण','प्रतिनिधि कहानियाँ','मानपत्र','थिएटर','चर्चित कहानियाँ संग्रह' 'कविता संग्रह:कछुए की पीठ पर,हरिश्चंद्र आओ,नदी भागती आई,प्यारे मुचकुन्द को ;'अनागरिक' तथा 'आधुनिक कवि रमेश चंद्र शाह [हिंदी साहित्य सम्मेलन] (2005) सहित्यालोचन तथा विचार चिंतन की १४ पुस्तकें,डायरी-पुस्तकें,संस्मरण 'आवाहयामि' (2016);तथा अनेक विधाओं की चुनी रचनाओं का संकलन [बहुवचन] (1998) में किताब घर प्रकाशन,दिल्ली से प्रकाशित।
इसके अलावा बाल साहित्य की पुस्तकों में गोलू के मामा,जादू का सपना,नाना के गीत (कविता संग्रह),फाटक तथा हाथी की करतूत (नाटक) शामिल हैं।
कम लोग जानते हैं कि शाह साहब ने प्रौढ़ साहित्य लेखन के साथ ही बच्चों के लिए भी पूरी निष्ठा और ज़िम्मेदारी के साथ लिखा है।इतना ही नहीं जब आप उनसे बाल सुलभ कविताएँ सुनेंगे तो आपको लगेगा ये शाह साहब नहीं कोई बालक है।
तो हुआ यूँ,कि मैं उनके प्रौढ़ साहित्य पर आधारित एक मासिक पत्रिका हेतु,साक्षात्कार लेने उनके घर पहुँची।मझौले क़द-काठी,शांत-चित्त,उच्च ललाट,श्वेत केश,सफ़ेद पायजामा और खादी का बादामी कुर्ता,पसंदीदा मीठे पत्ते के बीड़े का रसास्वादन लेते मिले।मुख-मंडल पे प्रसन्नता के भाव उनके विराट व्यक्तित्व को सहज एवं सरल बना रहे थे।पद्मश्री सम्मान प्राप्त,एक प्रबुद्ध साहित्यकार,विचारक और चिंतक से उनके समग्र साहित्य पर संवाद करना तथा उनके वृहद लेखन को समेटना मेरे लिए उतना आसान भी नहीं था।ग्रीन टी की चुस्कियों के साथ,बातचीत का दौर शुरू हुआ।शाह साहब से रोचक बातों के दौरान समय का पता ही नहीं चला।मैंने सोचा वे थक गये होंगे,साक्षात्कार रोककर अल्प विराम लेने को कहा,लेकिन शाह साहब के चेहरे पे थकान के विपरीत ऊर्जा और उत्साह के भाव मुखरित थे।उनके इस उत्साह और सहयोग से मुझे संबल मिला और मेरा कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न हुआ।
साक्षात्कार के दौरान मैंने उनसे बाल साहित्य पर भी चर्चा की।बाल साहित्य के प्रति गहरी रुचि का भान होते ही उन्होंने मुझसे पूछ लिया-' प्रीति,क्या आप भी बाल साहित्य लिखती हैं ?' इतना सुनते ही मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा।मैंने झट से बैग में रखे कविता संग्रह “निंदिया को पंख लगे” की प्रति शाह साहब को मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद स्वरूप भेंट की।पन्ने पलटे हुए उनकी दृष्टि पुस्तक के शीर्षक की कविता पर पड़ी।उन्होंने उस कविता की प्रशंसा की और मुझे उनका आशीष मिलना सपना सच होने जैसा प्रतीत हुआ।
फिर उन्होंने अपने पुस्तकालय से नाना के गीत” बाल कविता संग्रह की पुस्तक मुझे भेंट की,जो मेरे लिए बेशक़ीमती उपहार से कम नहीं था।आकर्षक आवरण से सुसज्जित तथा बाल मनोविज्ञान में पगी रचनाओं का रोचक संग्रह है।इस पुस्तक का प्रथम संस्करण सन् 2009 में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित हुआ।ख़ालिद-बिन-सुहैल के रंग-बिरंगे चित्रांकन ने इन संग्रह को रोचकता प्रदान की है।”नाना के गीत” काव्य संकलन का सृजन शाह साहब ने विशेषकर अपने नाती के लिए किया है।यह उनका पाँचवाँ बाल कविता संग्रह है।इस संग्रह में उन्नीस गीत हैं,प्रथम गीत-'नाना का गाना' शीर्षक से प्रस्तुत है-
'नन्हा मुन्ना राना रे
मैं हूँ तेरा नाना रे!
तुझे सुनाता गाना रे
बस कर अब चिल्लाना रे!

तू है बहुत सायना रे
नानों का भी नाना रे!
बिन बात मुस्काना रे
कैसा तू मनमाना रे!

कैसे तूने जाना रे
गाना ही है नाना रे!
कैसा ताना-बाना रे
ये नाना का गाना रे!

मुझको तुझे मनाना रे
तुझको मुझे गवाना रे!
बहुत हुआ मनमाना रे
बस कर रोना-गाना रे!

तैंने तो ज्यूं माना रे
तू ही मेरा नाना रे!'

गीत-संगीत बड़े ही नहीं बच्चों को भी आकर्षित करते हैं।जब बच्चे रूठते है तो उन्हें मनाना आसान नहीं।रोते बच्चे को चुप कराने और मनाने के लिए अक्सर माताएँ गाना सुनाया करती हैं।गाना सुनकर रोते हुए बच्चे अक्सर चुप हो जाते हैं।कवि ने भी इस कला का प्रयोग करते हुए अपने नाती को चुप कराने हेतु इस गीत का ताना-बाना बुना,जो असर कर गया।
“नान के गीत” काव्य संग्रह में बाल मनोविज्ञान से परिपूर्ण उन्नीस गीत हैं,जो प्रत्येक बाल पाठक को अपने प्रतीत होंगे।इन गीतों से अभिनय के साथ के साथ बच्चे सीधे जुड़ेंगे।”जब देखो तब” रचना में मानचित्र तथा 'घाना' नामक छोटे से देश को बड़े ही रोचक अन्दाज़ में प्रस्तुत किया है,-
यूं मकई का दाना है,
नक़्शे में ज्यूं घाना है;
ख़ुद अपने से अनजाना,पर
पहने गुरू का बाना है।

सीख रहा हूं 'अ-आ' जो भी,
इसको मुझे सिखाना है।
अब तो एक यही इस घर में
दाना और सयाना रे।

रोते-रोते कब हंस देगा
इसका नहीं ठिकाना है।
जब मर्ज़ी हो,पकड़ मंगाता
बच्चा है या थाना है?
नयी-नयी वस्तुओं को देखकर बच्चो के मन में जिज्ञासा उत्पन्न होती है,और वे प्रश्न करने लगते हैं।उनके स्वभाव और प्रवृत्ति को आत्मसात कर के शाह साहब ने सीखने-सिखाने की प्रक्रिया से पाठकों को आसानी से जोड़ने का अभिनव प्रयोग किया है।
शाह साहब से संवाद करते हुए जब मैंने उनके,इस संग्रह में से कोई गीत उनके ही कंठस्वर में सुनने की इच्छा प्रकट की तो उनके चेहरे पर बच्चे के समान निश्छल भाव मुस्कान के साथ मुखरित हो उठे।पुस्तक हाथ में ले उन्होंने “दादा और मोनू”नामक गीत का रोचक वाचन किया-
दांत नदारद हैं दोनों के
हँसते हैं पर ख़ूब
एक दूसरे के हमजोली
जैसे धरती-दूब।

जोड़ी इनकी मज़ेदार है
दोनों पर है धूप;
एक सुबह की,एक शाम की
रंग दिखाती ख़ूब।

एक-दूसरे के पीछे ये
हरदम भगते रहते।
एक-दूसरे को ये लगता,
हरदम ठगते रहते।।

जब भी होते साथ,अरे ये
ख़ूब किलकते रहते।
सोये भी ये आँख खोलकर
मानो जगते रहते।।
बच्चे और बुज़ुर्ग की जोड़ी बहुत मज़ेदार होती है।हास्य भरे अन्दाज़ में वे लिखते हैं,दोनों के दाँत नदारद हैं,फिर भी दोनों ख़ूब हँसते हैं।शाह साहब उन्हें हमजोली बताते हुए बहुत ही ख़ूबसूरती से धरती और दूब की उपमा देते हैं।बच्चे और बुज़ुर्ग दोनों पर धूप बराबर है,एक पर सुबह की तो दूसरे पर शाम की।दोनों साथ में खेलते हुए ख़ूब किलकते हैं।वाक़ई बच्चे और बूढ़े एक जैसे ही जाते हैं।अपने नाती के साथ हँसते-खेलते शाह साहब ने नाना के गीतों का सृजन किया है,जिसका बाल साहित्य जगत में बहुत स्वागत हुआ है।
शाह साहब के दूसरे संग्रह,'जादू का सपना' में बालमनोविज्ञान से परिपूर्ण,सोलह कविताएँ हैं।
बच्चो को रूठना-मनाना,पशु-पक्षी,पेड़-पौधे,सूरज,चाँद,सितारे,आपसी सवाल-जवाब,वाली कविताओं में बहुत आनंद आता है।बालमन की इन भावनाओं को शाह साहब ने 'बूझो तो' नामक कविता में कुछ इस तरह उकेरा है।
'हाथी उड़ा आकाश में
तारे निकले घास में
कहाँ जा छुपा सूरज आख़िर,कब निकलेगा माँद से?
गप्पे लगाने चला गया क्यों दिन-दोपहरी चाँद से?
आसमान को फाड़ता
कौन है ये,चिंघाड़ता?
किसका इतना बड़ा पेट है,जो यह बारिश पी रहा?
किसकी इतनी बड़ी सुई,जो आसमान को सी रहा?
कठपुतली का खेल और तमाशा देखना केवल बच्चो को ही नहीं बड़ों को भी बहुत सुहाता है।इस सिलसिले में 'तमाशा' नामक कविता की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
'मैं ही अपना सूत्रधार हूँ
मैं ही हूँ कठपुतली।
नचा रही है अरे,मुझीको
कबसे मेरी सुतली।
सभी दिशाओं को समेटते
रंग-बिरंगे धागे
ब्रह्मा विष्णु महेश दंग हैं
इस करतब के आगे।
हँसते-हँसते लोट-पोट
हो गए लोग जब सारे
आसमान में मची खलबली
कहाँ गए सब तारे?
सरल भाषा शैली में रचित ये कविता पाठकों से बतियाते उन्हें अपने ही बालमान्य से जोड़ने का प्रयास करने में सफल हुई है।
टीकू और कक्कू को समर्पित इनके प्रथम संग्रह 'गोलू के मामा' में कहानी,
ना धिन धिन्ना,भरी दोपहरी,ना भई ना,एक पहेली,बादल,कक्कू,बंटी जैसे शीर्षकों में सृजित चौदह कविताएँ हैं।
'गोलू के मामा' पुस्तक के शीर्षक कविता की पंक्तियाँ पेश हैं-
गोलू के मामा आए
सब देख रहे मुँह बाये।
मुँह उनका है ग़ुब्बारा
था किसने उन्हें पुकारा,
नारंगी उनको भाये
गोलू के मामा आये।'
इसी संग्रह की एक कविता में शाह साहब ने कहानी के तत्वों की समाहित करने का प्रयास बहुत सुंदरता से किया है।आरंभ ही देखिये,कैसे हुआ है।
'बहुत दिनों की बात है बच्चो
बूढ़ा एक शहर था
उसके बीचोबीच हमारा
फटा-पुराना घर था।
बच्चों को बारिश का मौसम लुभावना लगता है।रिमझिम-रिमझिम,झरमर-झरमर सुंदर शब्दांकन के प्रयोग द्वारा 'कक्कू की बरसात' नामक कविता की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
'पानी!पानी!पानी!
दौड़ी कक्कू रानी।।
सोई थी चुपचाप,जग पड़ी
सुन सपने की बानी
रिमझिम-रिमझिम,झरमर-झरमर
बुला रहा था पानी
बादल की यह बोली उसने
मन ही मन पहचानी।।
'हाथी की करतूत' नामक तीसरे संग्रह में भी बड़ी प्रेरक और रोचक पंद्रह कविताएँ हैं।'चोरी' कविता की चंद पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
'रामू-दामू चढ़े पेड़ पर
खाने कच्चे आम।
तभी अचानक पड़ा सुनाई
“रख दो पहले दाम”।
मारे डर के टपके ज्यों ही
लिया किसी ने थाम।
बिल्कुल अपने बाबा यह तो!
पूछ रहे हैं नाम।
“बाबा अबसे नहीं करेंगे”
कान पकड़ते चोर।
जाते-जाते मगर गए फिर
बाबा को झकझोर।
शाह साहब ने बच्चो की अतिप्रिय विधा नाटक को भी अपने लेखन से समृद्ध किया है।उनके नाटकों में बच्चो की समस्याएँ और उनके समाधान,चित्रों के साथ उपलब्ध हैं।बाल नाटक लिखते समय एक लेखक को क्या तैयारी आवश्यक है,इसके सशक्त उदाहरण हैं 'टिम्बकटू' और 'फाटक' नामक हास्य व्यंग से भरपूर नाटक।
आक बच्चो के खेलने के मैदान का न होना बहुत बड़ी समस्या है।खेलते समय बच्चो की गेंद किसी पड़ोसी के घर में चली जाती है,उसके बाद डाँट का सिलसिला शुरू होकर खेल बंद करने पर ख़त्म होता है।इस नाटक में उन्होंने बालकों की समस्या काल्पनिक एवं बड़ा ही मज़ेदार समाधान ढूँढते हुए सपने में बच्चो के लिए एक ऐसे 'फाटक' सृजन किया है,जहाँ सपने में ही सही वे खेलने सुख पाते हैं।
समस्याओं को चिन्हित करते हुए 'फाटक' नामक हास्यव्यंग से भरपूर नाटक भी लिखा है।आज बच्चो के खेलने के मैदान का न होना बहुत बड़ी समस्या है।खेलते समय बच्चो की गेंद किसी पड़ोसी के घर में चली जाती है उसके बाद डाँट का सिलसिला शुरू होकर खेल बंद करने पर ख़त्म होता है।इस नाटक में उन्होंने बालकों की समस्या का समाधान ढूँढते हुए सपने में
बच्चो के लिए एक ऐसे 'फाटक' का सृजन किया है,जहाँ सपने में ही सही वे खेलने का सुख पाते हैं।बच्चो के लिए नाटक लिखते समय पसंदीदा पात्रों के द्वारा छोटे संवाद और चुटीली शैली उनकी रुचि के अनुरूप होती है।इन सब बातों का भलीभाँति ध्यान रखते हुए उन्होंने नाटक को लिखा है।नारद जी द्वारा उन्होंने बच्चो संवाद को मज़ेदार बनाकर प्रस्तुत किया है।जी इस प्रकार है-1
'कैसा फाटक? कहाँ का फाटक? समझा के बोलो भाई!जिसका है फाटक,उसी को बोलो,किसकी है शामत आई।
-2
(ताली बजाते हुए)बहुत अच्छ।बंद करने का मालूम है? चलो शुरू हो जाओ।
गोलू,भोलू,दामू,लच्छू,गोटू (फाटक के भीतरसे ही चिल्लाते हुए)
सो जा फाटक,सो जा फाटक।
ले संभाल अब अपना नाटक
अब हम अपने घर जाएँगे।
दादी से मन बहलाएँगे।
'फाटक' जैसी निष्क्रिय वस्तु का उपयोग नाटक में ऐसे भी किया जा सकता है देखकर पाठक उल्लसित,विस्मय का अनुभव करता है।शुरुआत से अंत तक संपूर्ण नाटक में जिज्ञासा बनी हुई है।कई जगह संवाद तुकांत और गेय हैं जिन्हें बच्चे आसानी याद कर सकेंगे।उचित भाव भंगिमा को ग्राह्य कर नाटक मंचन के योग्य हो जाएगा।
इस प्रकार समग्रता में रमेश चंद्र शाह जी के बाल साहित्य को पढ़ने पर ज्ञात हुआ कि बाल मनोविज्ञान से ओतप्रोत उनकी रचनाओं का भावपक्ष बच्चो की रुचि की सार्थकता प्रदान करता है।सरल,सहज एवं रोचक शैली में पगी कविताओं के साथ ही साथ नाटक को पढ़कर बच्चे ही नहीं बड़े भी आनंद से झूम उठेंगे।
ऐसे बाल साहित्य सर्जक श्री रमेश चंद्र शाह जी के अंदर छोटा बच्चा आज भी जीवित है।आपसे बच्चे अपनी अभिरुचि को तुष्ट करने वाले“नाना के गीत” व अन्य कविताओं तथा रुचिपूर्ण नाटक की भाँति अनेकों उपहार की आशा करते हैं।आप सदैव स्वस्थ और ऊर्जावान रहते हुये शतायू हों यही कामना करती हूँ!

*डॉ.प्रीति प्रवीण खरे,भोपाल म.प्र,मो.-9425014719





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