मजहबों की चादर को
जब तक
कस के ओढ़े रहोगे
आदमी को आदमी से
कैसे जोड़े रहोगे।
मोहब्बत की बारिश में
जी भरकर भींगो
कब तक फूलों को
कांटों पे छोड़े रहोगे।
अक्लमंद हो
किसी हुनर से
बाँट दो सांसो को भी
इंसानियत की खुशबू से
कैसे मुँह फेरे रहोगे।
जानता हूँ
तुम मंदिर में हो
मस्जिद में भी हो
पर औरों को
नफरत की आंधी से
कब तक बिखेरे रहोगे।
*श्वेतांक कुमार सिंह,चकिया, बलिया, उत्तर प्रदेश/कोलकाता, मो.8318983664
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