साहित्य का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को श्रेष्ठ आचरण की ओर प्रेरित करना है - डॉ बालकृष्ण शर्मा
उज्जैन। साहित्य केवल शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि समाज में क्रांति लाने की मशाल है। अच्छा साहित्य हमारे समाज की सोच और संस्कारों को भी आकार देता है। आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया ने साहित्य को नए आयाम दिए हैं, लेकिन इसके साथ ही इसके स्तर में गिरावट की चिंताएं भी उभर रही हैं। साहित्य, जो कभी नैतिक मूल्यों और समाज सुधार का माध्यम था, अब कई बार सोशल मीडिया पर अपने उद्देश्य से भटकता नजर आता है। साहित्य के नाम पर बढ़ती बुराइयों ने आपसी तनाव और नैतिक पतन को जन्म दिया है। वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या और पारिवारिक बिखराव इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। इसका कारण है कि हम अपने मूल साहित्य और लोक साहित्य से कट गए हैं, जो कभी हमें प्रेरणा और दिशा देते थे। वेदों के संस्कार और मूल्यों को लोक साहित्य ने आगे बढ़ाया है। हमें चाहिए कि हम लोक साहित्य से जोड़ते हुए नैतिक मूल्यों को युवाओं तक पहुंचाएं। । आज हजारों चैनल्स और कवि सम्मेलनों की बाढ़ के बीच भी स्तरीय साहित्य की खोज की जा रही है।
उक्त विचार पूर्व उप महानिदेशक आकाशवाणी एवं अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार माननीय श्री लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, ने भारतीय ज्ञानपीठ ( माधव नगर ) में कर्मयोगी स्व. कृष्ण मंगल सिंह कुलश्रेष्ठ की प्रेरणा एवं पद्मभूषण डॉ. शिवमंगल 'सुमन' की स्मृति में आयोजित 22 वीं अ.भा.सद्भावना व्याख्यानमाला के पंचम दिवस पर प्रमुख वक्ता के रूप में व्यक्त किए। "साहित्य के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन की राह" विषय पर व्यक्त अपने विचारों में श्री वाजपेयी ने कहा कि इतिहास में ऐसे कई उदाहरण है जब हमने देखा कि साहित्य ने डाकुओं के हृदय को परिवर्तन कर उन्हें सुधारा, नारियों को सशक्त बनाया और भेदभाव वाले कानूनों में बदलाव के लिए आधार तैयार किया। साहित्य मनुष्य को मनुष्य बनाने की गारंटी देता है। यह समाज, देश और सभ्यताओं को बेहतर बनाने का सशक्त माध्यम है। रामचरितमानस जैसे ग्रंथों का भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव रहा है, और इसने न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक मतभेदों को भी समाप्त करने में अहम भूमिका निभाई। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, कवियों और साहित्यकारों ने अपने रचनात्मक कार्यों के माध्यम से भारतीय जनमानस को प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन की नींव रखने का प्रयास किया, तब सोशल मीडिया जैसे प्लेटफार्म नहीं थे। ऐसे में कवियों और लोक साहित्यकारों ने बड़ी भूमिका निभाई और गांधी जी के विचारों को जन-जन तक पहुंचाया। स्वयं गांधी जी भी किसी ना किसी साहित्यकार से प्रेरित रहे । जब उन्होंने लियो टॉलस्टॉय की किताब पढ़ी, तो उन्होंने सत्याग्रह आंदोलन की नींव रखी। रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं और विचारों को भी पढ़कर भारतीय संस्कृति और स्वाधीनता के लिए अपने संघर्ष को और प्रबल किया। श्री वाजपेयी ने कहा कि यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम साहित्य के उस स्वरूप को संरक्षित करें, जो मानवता को प्रेरित करता है और समाज को सही दिशा दिखाता है। अच्छे साहित्य से जुड़कर ही हम अपनी सभ्यता और संस्कृति की जड़ों को मजबूती दे सकते हैं।
समारोह की अध्यक्षता करते हुए पूर्व कुलगुरू, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के माननीय डॉ. बालकृष्ण शर्मां, ने कहा कि वस्तुत: कवि या साहित्यकार का संसार एक ऐसा संसार है, जो लौकिक होते हुए भी अलौकिक होता है। साहित्यकार एक ऐसे लोक की रचना करता है, जो उसकी इच्छा अनुसार परिवर्तित हो सकता है। हालांकि विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना मानव है, किंतु मानव में मानवीय गुणों के समावेश करने का कार्य साहित्य ही करता है।
डॉ बालकृष्ण शर्मा ने कहा कि साहित्य का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को श्रेष्ठ आचरण की ओर प्रेरित करना है। यह मनुष्य में आशा का संचार करता है। जो कार्य शक्ति या तलवारों से नहीं हो सकता, वह लेखनी से संभव हो जाता है। वैदिक काल से ही साहित्य हमारे समाज के कल्याण के लिए संदेश प्रसारित करता आ रहा है। डॉ शर्मा ने कहा कि सभी को एक साथ लेकर चलने की भावना, यानी सबके कल्याण की भावना, ही साहित्य का मूल आधार है। वर्तमान में और दृश्य-श्रव्य साहित्य में कुछ विकृतियाँ दिखाई दे रही हैं, जिन्हें दूर करके हमें पुनः मूल साहित्य की ओर लौटना होगा।
डॉ शर्मा ने बताया कि साहित्य का अध्ययन करने के साथ-साथ इसका सही बोध भी जरूरी है। जब हम साहित्य को समझते हैं, तब उसे अपने आचरण में उतारना चाहिए और उसके बाद उसका प्रचार करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है, तो साहित्य का उद्देश्य अधूरा रहता है। जीवन के चार पुरुषार्थ की प्राप्ति ही साहित्य का असली प्रयोजन है। जो व्यवहार हमें अपने लिए अप्रिय लगे, वह हमें दूसरों के प्रति नहीं करना चाहिए, यही धर्म है, और यही बात साहित्य भी व्यक्त करता है।
व्याख्यानमाला के आरंभ में संस्थान की शिक्षिकाओं द्वारा सद्भावना गीतों की प्रस्तुति दी गई। वरिष्ठ शिक्षाविद श्री दिवाकर नातु, संस्थान प्रमुख श्री युधिष्ठिर कुलश्रेष्ठ , श्रीमती अमृता कुलश्रेष्ठ सहित संस्थान के पदाधिकारियों द्वारा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, कविकुलगुरु डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन और कर्मयोगी स्व. श्री कृष्णमंगल सिंह कुलश्रेष्ठ के प्रति सूतांजलि अर्पित कर दीप प्रज्वलित किया गया। भारतीय ज्ञानपीठ के सद्भावना सभागृह में डिजिटल व्याख्यानमाला को सुनने के लिए वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी श्री प्रेम नारायण नागर, उमानंद जी महाराज, एडवोकेट श्री हरदयाल सिंह ठाकुर, एडवोकेट श्री लाखन सिंह असावाद, , संतोष सुपेकर, महेंद्र शर्मा, सोनू गेहलोत, डॉ दिनेश जैन, पदम जैन, श्रीकृष्ण जोशी जी, डॉ शैलेंद्र पाराशर, डॉ सुनीता श्रीवास्तव, दिनेश श्रीवास्तव, निरंजन श्रीवास्तव सहित विभिन्न पत्रकारगण, शिक्षकजन एवं बौद्धिकजन उपस्थित थे।
इस अवसर पर वरिष्ठ साहित्यकार डॉ पिलकेंद्र अरोरा ने सद्भावना को समर्पित एक कविता का वाचन किया। व्याख्यानमाला का संचालन प्राचार्य श्रीमती मयूरी बैरागी ने किया।
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