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राष्ट्रीय एकता के प्रतीक - संत कबीर

संत कबीर का जन्म (विक्रम संवत 1398 )में उन परिस्थितियों में हुआ जब भारत की सामाजिक सांस्कृतिक स्थिति बहुत ही दयनीय थी। सिद्धांत हीन, आदर्शहीन मूल्यहीन और चरित्रहीन समाज में मानव जीवन दु भर था तथा राजनीतिक ,धार्मिक परिस्थितियों और प्रवृत्तियों ने और अधिक जर्जर बना दिया था, उस समय मुस्लिम धर्म का बोलबाला था। देश में अराजकतार चरम स्तर पर थी और वेद तथा उपनिषद की स्वर्णिम युगों से निकलकर कर्मकांड, जातिवाद, छुआछूत, पाखंड आदि विसंगतियां ने स्थान ले लिया थाा। विधवाओं की दुर्दशा थी ,उन्हें डरा धमकाकर पति की चिता के साथ जला दिया जाता था या फिर छोटी बड़ी भूल के कारण वि धर्मियों को सुपुर्द कर दिया जाता था। विधवाओं को विवाह की स्वतंत्रता नहीं थी।  ऐसी ही परिस्थितियों में एक विधवा ब्राह्मणी समाज के भय से अपने नवजात शिशु को काशी के अगरतला तालाब के किनारे पगडंडी पर रख गई । उस बच्चे को मुसलमान समुदाय के जुलाहा परिवार माता नीमा तथा पिता नीरू ने पाल पोस कर बड़ा किया जो संत कबीर के नाम से हुए प्रसिद्ध हुए।

कबीर ने कभी औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं की थी, अनपढ़ होते हुए भी उनको जीवन के कई क्षेत्रों के बारे में जानकारी थी। साधु-संतों, फकीरों की संगत से उन्होंने उपनिषद ,योग आदि का ज्ञान प्राप्त कर लिया था । अनुभव की पाठशाला का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा, कबीर का जीवन यथार्थवादी था। ईर्ष्या, द्वेष संकीर्णता मुक्त हृदय उनके जीवन की यथार्ता का परिचायक है। उनका एक वाक्य "मैं कहता हूं आंखन देखी, तू कहता है कागज लेखी "- यथार्थ को स्पष्ट करता है।

कबीर स्वामी रामानंद जो वैष्णव धर्म को मानने वाले थे उनसे बहुत प्रभावित थे तथा उन्हें अपना गुरु बनाना चाहते थे, लेकिन रामानंद जी ने उन्हें गुरु बनाने से इनकार कर दिया तब कबीर ने एकलव्य का रास्ता अपनाते हुए काशी की मणिकर्णिका घाट पर लेट लेट गए, ब्रह्म मुहूर्त में रामानंद जी जब गंगा स्नान करने के लिए आए तो उनके पांव कबीर पर पड़ गया तब रामानंद जी पीछे हटकर राम-राम बोले और कबीर ने उनके पांव पकड़ लिए और कहा आज से मेरे आप गुरु है क्योंकि आपने राम-राम का गुरु मंत्र मुझे दे दिया है। यही उनकी दृढ़ता का प्रतीक है।

15 वर्ष की आयु में विचार आया तेरा जीवन महान प्रयोजन के लिए है । ऐसा सोचकर नित्य कार्यों को निपटा कर गांव-गांव ,नगर नगर जन भावना को बदलने का अलख जगाया, इसके प्रभाव से उनके हजारों समर्थक हो गए । कबीर का मार्ग धर्म प्रचार का, आचरण की शुद्धता का, लोक कल्याण का सांप्रदायिक सद्भाव का तथा दुष्प्रवृत्तियों का निवारण एवं उन्मूलन पर अवलंबित था। निहित स्वार्थी तत्वों ने जब अपने व्यवसाय में धक्का लगाते देखा तो बौखला गए जो लोग वंश और वेश के आधार पर मालामाल हो रहे थे, वह उनके प्राणों के ग्राहक हो गए। कई बार धर्मावलंबियो के आक्रमण हुए, सिकंदर लोदी के दरबार में उन्हें राजद्रोही घोषित किया गयाथा, ईश्वर होने का अभियोग लगाया तथा दरबार में उन्हें काफिर कहा गया, मृत्यु दंड दिया गया, लोहे की बेड़िया और हथकड़ियां से बांधकर नदी में डुबोया गया, लेकिन जंजीरें एवं बेड़िया टूट गई और वह नदी के किनारे आ गए फिर उन्हें जलते हुए अंगारों के अग्निकुंड में डाला गया वह अग्नि शांत हो गई इतना ही नहीं इसके बाद उन पर मस्त हाथी को छोड़ा गया लेकिन हाथी भी नमस्कार करके निकल गया। इतनी सारी पीड़ाओं को सहकर भी अपने धर्म मार्ग से बिल्कुल भी विचलित नहीं हुए और निडरता एवं निर्भीकत का परिचय दिया। कबीर ने लिखा भी है-

गंगा माता गहरी गंभीर , पटके कबीर बंधी जंजीर लहारिन तोड़ी सब जंजीर, बैठ किनारे हंसी कबीर

घर में आने वाले लोगों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए अपने ही शिष्य युवती लॉय से विवाह किया जिनमें एक पुत्र कमाल तथा एक पुत्री कमाली हुई ।

कबीर दास निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। एक ही ईश्वर को मानने वाले थे। वे अंधविश्वास, धर्म व पूजा के नाम पर होने वाले आडंबरों के खिलाफ थे। उनके अनुसार वास्तविक धर्म जीवन जीने का तरीका है जिसे लोग जीते हैं न की लोगों के द्वारा बनाए गए। उनके अनुसार ईश्वर को निराकार बताया गया तथा उसे बाहर नहीं स्वयं के भीतर ही बताया। उन्होंने अपनी वाणी को माध्यम बनाकर सदा चरण ,विश्व शांति, मानव एवं मlन्वित्तर कल्याण, प्रेम दया तथा करुणा जैसे आदर्श व मूल्यों की शिक्षा संपूर्ण मानव जाति को प्रदान की।

कबीर का मुख्य लक्ष्य समाज को सुधारना और लोगों में एकता स्थापित करना था। समाज में फैली हुई कुरीतियां और बाहरी आडंबरों का खंडन करना ही उनका मूल मंत्र था। उनमें जाति-पाति का भेद नहीं था। काली और सफेद गाय के दूध में फर्क नहीं करते थे। इसलिए उन्होंने कहा -"कोई हिंदू कोई तुर्क कहावे, एक जमीन पर रहिए" उनके अनुसार सभी परमेश्वर की संतान है "को ब्राह्मण ,को शूद्र" इनमें भेद नहीं समझा। जीवन की सार्थकता सरलता एवं वास्तविकता को अपनाया। छुआ-छूत को मिटाया,बात-बात में शास्त्रों की दुआई देने वाले तथा यथार्थ को नहीं मानने वालों के लिए कहा-

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोई
ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित हुई 

कबीर ने धर्म के नाम पर प्रचलित पाखंड का विरोध किया वे मनुष्य मात्र को समान अधिकार और समान रूप से देखना चाहते थे। वह जात-पात और उच्च नीच के विरोधी थे । कबीर निर्भीक आदर्शवादी, चरित्रवान और जनकल्याणवादी लोक सेवक थे। हिंदू और मुसलमान दोनों के बीच समान रूप से प्रिया थे । उनकी दृष्टि में प्रत्येक मानव समान रूप से सामाजिक समानता और धर्म के अधिकारी थे जो आज के समय में भी जरूरी है। कबीर ने हिंसा का विरोध किया मांसाहार के कठोर विरोधी थे। उनकी वाणी में कल्पना ज्ञान और साधना का भंडार था  उन्होने परमात्मा को परम पुरुष का रूप मानकर आध्यात्मिक रहस्यवाद की उच्च कोटि की रचना की। उन्होंने कहा मानव जीवन दुर्लभ है। अपने अहंकार को छोड़कर जीवन को सार्थक बनाना ही जीवन का उद्देश्य है। उन्होंने मानव देह की नश्वरता को समझा, धन दौलत की अस्थिरता को जाना, पुद्गलों की आसक्ति को नकारा तथा अनासक्ति बनने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा-
मालिन मालिन आवत देख करी कालिया करे पुकार 
फूले फूले चुन्नी लिए, कल ही हमारी बार

कबीर पहुंचे हुए संत थे बाहरी नहीं अंतर जगत के धनी थे । उन्होंने माया का दूसरा नाम अज्ञान बताया, दर्पण पर जिस प्रकार धूल आ जाती है उसी प्रकार आत्मा पर अज्ञानता का आवरण आ जाता है जिससे परमात्मा के दर्शन नहीं हो नहीं हो पाते।

उन्होंने ब्राह्मणों और शूद्रों को निकट लाने का प्रयास किया हिंदू और मुसलमान के बीच की दीवार को तोड़कर उन्हें एक ही परिवार का व्यक्ति घोषित किया। अंधविश्वास को खत्म करने के लिए अंतिम अवस्था में काशी से मगहर चले गए जिसकी मान्यता के अनुसार वहां मृत्यु को प्राप्त करने वाले नरक में तथा काशी में मृत्यु को प्राप्त करने वाले स्वर्ग में जाते हैं। उनकी मृत्यु पर हिंदू दाह संस्कार करना चाहते थे मुसलमान दफना चाहते थे। लेकिन इस समय आकाशवाणी हुई कफन उठाकर देखो। देखने पर केवल फूल थे जिन्हें आधे लोगों ने जो मुस्लिम थे उनको दफन किया और आधे फूलों को जो हिंदू थे उनका दाह संस्कार किया इस प्रकार दोनों संप्रदायों में समन्वय स्थापित किया,120 वर्ष की आयु पूर्ण कर अपना जीवन धन्य किया।

इस प्रकार स्पष्ट है संत कबीर की संपूर्ण जीवन यात्रा राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बन गई जो आज भी प्रासंगिक है।
पदमचंद गांधी, भोपाल

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