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कोरकू परंपरा से जुड़ा वह पेड़ -अखिलेश श्रीवास्तव 'दादूभाई'



देखो-देखो! वहाँ शेर बैठा है और वह देखो कैसे रीछ मुँह फाड़े खड़ा है। अरे! मगरमच्छ तो दिखता ही नहीं जो मैं ध्यान से न देखता। अविश्वसनीय! इतना विशाल कच्छप और ये खीं-खीं, खों-खों करते शाखामृग! ये वानर सीधे-साधे दीखते अवश्य हैं, पर हैं इसके विपरीत। कैसी सन-सनन-सन-साँय-साँय हवा चल रही है जिससे जंगल-मंगल हो रहा है।

आप सोच रहे होंगे यह किसी वन का दृश्य है। नहीं बंधुओं, बंदरों को छोड़ सभी वन्यप्रणी, शैल आकृतियाँ हैं, जो सतपुड़ा की रानी पचमढ़ी की सुरम्य घाटियों में प्रकृति का अनुपम उपहार तथा पर्यटक कौतुहल का विषय हैं।

मेरी पचमढ़ी-यात्रा प्रथम नहीं है, पर हर बार नया अनुभव कराने वाला यह मनाह्लादित प्राकृतिक क्षेत्र अपनी ओर खींचता है। अतः आगमन की पुनरावृत्ति सहज है। इसबार मेरा लक्ष्य है वह पेड़ जो वर्षों से पचमढ़ी के आदिवासियों की भावनाओं को 'गाथा' प्रथा के रुप में संचित किए है। जिसके अंतर्गत ये अपने पूर्वजों को याद करते हैं। वर्तमान में इस स्थान को स्थानीय प्रशासन ने गेट और फ़ेसिंग लगा कर सुरक्षित किया है।

पचमढ़ी नरेश भभूत सिंह के काल से या संभवत: इससे और पहले से कोरकू लोक भावनाओं को अपनी क्रोड़ में समेटे यह पेड़ तथाकथित सभ्यताभिमानियों की वैचारिकी को परास्त कर रहा है।

कोरकू जीवन ही अनोखा है; फ़िर चाहे उनका जन्म हो, विवाह हो या मृत्यु। पचमढ़ी के जयस्तंभ चौराहे के समीप स्थित वृद्ध आम्र वृक्ष मृत्यु उपरांत आत्मा की शांति के लिए विश्वास और आस्था का सशक्त संवाहक है।

कोरकू अपने पूर्वजों को देवतुल्य मानते हुए उनका बहुत सम्मान करते हैं एवं उनकी कीर्तिशेष स्मृति को प्रतीकों के माध्यम से जीवित रखने पर विश्वास रखते हैं। इसीलिए काष्ठ का स्मृति स्तंभ बनाया जाता है जिसे ये 'मांडा' कहते हैं। इनके कुलों में मान्यता है कि स्वर्ग प्राप्ति के लिए मृत्यु से अधिकतम दस वर्ष के अंदर मांडा मड़ाना अनिवार्य है,अन्यथा श्राप लगता है और बीमारी,अधि-व्याधि,दुर्घटना हो सकती है। यह सनातन परंपरा के पिंडदान जैसा है।

काष्ट निर्मित ये स्मृति चिह्न एक प्रकार से स्मारक हैं। इनमें मृतकों के नाम के साथ, वन्य प्राणियों, देवी-देवताओं की आकृतियाँ उकेरी जातीं हैं। इसकी आकृति ऊपर से गोल होती है और नीचे एक हैंडल जैसा भाग निकला रहता है। मांडा मड़ाते समय आस-पास के गाँव के कई लोग एकत्रित होते हैं और लोकनृत्य, लोक गायन, मदिरा सेवन इत्यादि के साथ इस रस्म को बड़ी श्रद्धा से पूर्ण करते हैं।

इस पवित्र आम के वृक्ष के नीचे स्थापित देव के समक्ष पूजा-अर्चना के पश्चयात् काष्ट निर्मित चिह्न को बड़ी श्रद्धा से वहीं रख दिया जाता है। पीढ़ियों से इसी क्रम के कारण इस स्थान पर इन चिह्नों का विशाल ढेर लग गया है, जिसमें से कुछ पुराने मांडे तो अपना रंग तक बदल चुके हैं। यहाँ आने वाले पर्यटक भी इस क्षेत्र का सम्मान करते हैं। इस पुराने पेड़ ने इतिहास को करवट बदलते देखा है। न जाने कितने दुखी मनों की यादों को यह अपनी छाँव में समेटे है।

उद्गम संबंधी विषय पर 'चटकोरा' नृत्य करने वाले, प्रकृति उपासक कोरकू आदिवासियों का विश्वास है कि त्रेतायुग में रावण की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए स्वयं देवाधिदेव महादेव ने चीटियों की बाँबी की मिट्टी से स्त्री-पुरुष की मूर्तीयाँ बनाईं जिन्हें 'मुला और मुलाई' कहा और इनके कुल को 'पथरे।' इन दोनो को ही कोरकू जनजाती का आदि पूर्वज माना जाता है।

कोरकू नाम 'कोरू' अर्थात 'आदमी' से लिया गया है जिसके अंत में जुड़ा 'कू' शब्द उसे बहुवचन बनाता है। अर्थात कोरकू का अर्थ है, 'मनुष्यों (आदमियों) का समूह।' मूलत: मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग तथा महराष्ट्र के मेलघाट इलाक़े में निवासरत इस खेतिहारी आस्था समृद्ध जनजाती की भाषा को आधुनिक अध्ययनशास्त्र ऑस्ट्रो-एशियाई कुल की भाषा मानता है।

इन आदिवासियों का मानना है कि प्रेतात्माएँ पेड़ों के आलावा नदियों और तालाबों में भी वास करतीं हैं। अतः प्रकृति के नियमों के प्रति ये बड़े सजग रहते हैं। इसी सजगता और विश्वास से अनेक लोक कथाएँ विकसित हुई हैं जो कहीं-न-कहीं इनके इतिहास का लेखा-जोखा हैं और इन्हें विश्वदृष्टिकोण की परिधि में लातीं हैं।

इंटरनेट में उपलब्ध चंद्र प्रकाश काला के शोध आलेख से पता चलता है कि संगठनात्मक रूप से गोत्रों में विभक्त आदि निवासी भोजन, कृषि, चिकित्सा, यात्रा सभी के लिए प्राकृतिक संकेतों पर आश्रित रहते हैं; जैसे- वर्षाकाल में बीज वपन के लिए इंद्रधनुष का पूर्व दिशा से निकलना सर्वोत्तम माना जाता है। गाँव के दक्षिण में काले बादलों का घिर आना कम समय में अधिक बारिश का संकेत है। इसी प्रकार मानसून में औषधीय पौधे एकत्रित नहीं किए जाते क्योंकि इस माह को प्रजनन-माह माना जाता है।

पूरे विश्व में मृत लोगों के स्मरण के लिए भाँती-भाँती की आम्नाएँ प्रचलित हैं। बस्तर में भी यही पवित्र प्रथा है, पर लकड़ी की कमी के कारण अब स्तंभ पत्थरों के बनाए जाते हैं। 23 अप्रैल 2024 के दैनिक भास्कर में समाचार प्रकाशित हुआ कि ऑस्ट्रेलिया में विशेषकर सड़क हादसों में प्राण गाँवाने वालों की याद में उनसे संबंधित वस्तुओं को ट्री आर्ट के रूप में पेड़ों पर लटकाने का रिवाज़ है।

ऐसे ही मेडागास्कर की मालागासी जनजाति में फ़ामदिहाना नाम की परंपरा है जिसके अंतर्गत हर सात वर्ष में यह समुदाय अपने दफ़न पूर्वजों को बाहर निकालते हैं और उन्हें नए वस्त्रों में लपेटकर उनकी आराधना करते हैं। उनकी क़ब्र के चारों ओर पारंपरिक स्मृति गीत गाते हुए नाचते हैं। मान्यता है कि इससे यह पूर्वज अपना आशीर्वाद इन्हें देते हैं।

इंडोनेशिया की दानी जनजाति में एक विचित्र हिंसक परंपरा है। यहाँ किसी परिजन की मृत्यु पर स्त्रिविशेष को अपनी अंगुली काटनी पड़ती थी। वैसे इस परंपरा पर प्रतिबंध लगा दिया गया है; परंतु कुछ पुराने लोग अभी भी इसका पालन चोरी-छिपे कर ही लेते हैं।

इसीप्रकार किसी-न-किसी रूप में पूरी मानव जाती अपने पूर्वजों के सम्मान में कुछ-न-कुछ परंपराओं से अवश्य बंधी है। यह विश्वास का विषय है, इसे तर्कों से नहीं समझा जा सकता। क्या है और क्या होना चाहिए इन सभी बौद्धिक प्रश्नों से कोसों दूर पितृ स्मरण रीतियाँ, मानवीय मन, बुद्धि और हृदय में अंदर तक रची-बसीं हैं। इनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन करना आस्था पर चोट है।

पचमढ़ी के जयस्तंभ चौक में समय की गति को आत्मसात किए यह विशाल वृक्ष कोरकू जनजाति की भावना-संरक्षण का सजीव साथी है। कितने ही मिलन और बिछोह इसने देखे हैं। यों कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी कि इस आम्र द्रुम के प्रत्येक प्राध्वर-प्राध्वर, पल्लव-पल्लव, कोंपल-कोंपल, किसलय-किसलय आदिवासियों के भाव सखा हैं।

भारतीय परंपराओं के विशाल सागर में यह गाथा प्रथा अविश्वसनीय; परंतु सत्य है। जिसके कण-कण में पूर्वजों और उनके आदर्शों के लिए समर्पण भाव अंर्तनिहित हैं।
-अखिलेश श्रीवास्तव 'दादूभाई'
कथेतर लेखक

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