Subscribe Us

फेंटेसी का भारत युवाओं का भारत नहीं हो सकता हैं -डॉ जगदीश्वर चतुर्वेदी


उज्जैन। 21वीं शताब्दी के युवा की स्थिति चुनौतीपूर्ण है। आज युवा स्पीड का हिस्सा बन चुका है, परिणाम यह है कि देश में युवा तो है किंतु स्पीड ने उनमें से युवापन समाप्त कर दिया है। सोशल मीडिया पर अधिक रहने के कारण युवा को फेंटेसी में जीने की आदत हो गई है। फेंटेसी का भारत युवाओं का भारत नहीं हो सकता। नये विचार और आदर्श उनकी आशाओं के केंद्र में नहीं है। हमें रूढ़िवादी युवा नहीं चाहिए। नवीन विचारों के निर्माता ही युवाओं के सच्चे आदर्श बन सकते हैं। आज का युवा प्रतिस्पर्धा में उलझा हुआ है। श्रेष्ठ कॉलेज में पहुंचने के लिए भी वह प्रतिस्पर्धा से झूझ रहा है, जबकि बेहतर शिक्षा मिलना तो उसका अधिकार है, जो उसे बिना प्रतिस्पर्धा के मिलना चाहिए। हमें इतने अधिक बेहतर कॉलेज और विश्वविद्यालय बनाना चाहिए कि उसे बिना प्रतिस्पर्धा के अच्छी शिक्षा प्राप्त हो। प्रतिस्पर्धा के दौर में युवा सिर्फ अपने बारे में सोच रहा है । ऐसे में उससे समाज निर्माण की कल्पना कैसे की जा सकती है ? युवाओं को यह समझाना होगा कि सिर्फ मत डालना या चुनावी दलों के झंडे उठाना ही लोकतंत्र नहीं है, बल्कि युवाओं को अपने आचरण से ही लोकतांत्रिक बनना होगा। उन्हें अपने घरों से लेकर बाहर समाज तक में लोकतांत्रिक आचरण करते आना चाहिए। जीवन मूल्यों के पतन के कारण ही देश में राजा राममोहन राय जैसे युवाओं का आभाव है जो मात्र 18 वर्ष की आयु में देश में से सती प्रथा को समाप्त कर देने का भाव मन में जागृत कर लेते हैं।

उक्त विचार वरिष्ठ शिक्षाविद कोलकाता विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्राध्यापक डॉ जगदीश्वर चतुर्वेदी ने भारतीय ज्ञानपीठ में आयोजित कर्मयोगी स्व. श्री कृष्णमंगल सिंह कुलश्रेष्ठ की प्रेरणा और डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' की स्मृति में आयोजित 21 वीं अखिल भारतीय सद्भावना व्याख्यानमाला के चतुर्थ दिवस पर प्रमुख वक्ता के रूप में व्यक्त किये। "राष्ट्र के निर्माण में युवाओं की भूमिका" विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने कहा कि युवाओं में सामाजिक संस्कृति की चेतना जागृत करने के लिए विश्वविद्यालयों में संवाद करने के मंच होना चाहिए। युवाओं के लिए सांस्कृतिक मंच भी उपलब्ध होना चाहिए ताकि उनमें मूल्य स्थापित हो। वर्तमान में अकादमिक स्वतंत्रता का आभाव देखा जा रहा है, इसके लिए आवश्यक है कि कॉलेज कैंपस में युवाओं की गतिविधियों के योग्य वातावरण हो। वैदिक बनने का अर्थ सिर्फ वैदिक मंत्रों की ऋचाओं का जाप करना नहीं है, बल्कि वेदों का मतलब है निरंतर नया जानना। यह हमारे उपनिषदों की परंपरा भी रही है, किंतु आज कुछ नया जानने की जिज्ञासा युवाओं में नहीं है। उनमें खोज करने की प्रवृत्ति का आभाव देखा जा रहा है।

समारोह की अध्यक्षता करते हुए उज्जैन के जिला शिक्षा अधिकारी माननीय श्री आनंद शर्मा ने कहा कि युवाओं में राष्ट्र के प्रति चेतना का आभाव है। हमें चाहिए कि किशोर अवस्था में ही नैतिक मूल्यों का समावेश करने के प्रयास किया जाना चाहिए और यह प्रयास विद्यालय स्तर से आरंभ हो ताकि युवा होते-होते वह नए भारत के निर्माण करने योग्य युवा साबित होंगे। जिस तरह रक्त के बिना शरीर की कल्पना नहीं की जाती, उस प्रकार युवा सोच के बिना राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती। विद्यालय स्तर पर जो अपेक्षाएं और प्रयास है, वह पर्याप्त नहीं हैं यह प्रयास और अधिक मात्रा में किये जाना चाहिए। स्कूल शिक्षा और उच्च शिक्षा विभाग के साथियों की यह बड़ी जिम्मेदारी है कि युवाओं में राष्ट्र के प्रति समर्पण भाव उत्पन्न करें। उन्हें भौतिक स्तर पर सशक्त करें, क्योंकि युवा राष्ट्र की धरोहर है। युवा शक्ति किसी भी देश और समाज की रीढ़ होती है। युवा ही देश और समाज को नए शिखर पर ले जाते हैं। हमारे राष्ट्र के लिए कई परिवर्तन, विकास, समृद्धि और सम्मान लाने में युवा सक्रिय रूप से शामिल हुए हैं।

व्याख्यानमाला को सुनने के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के सद्भावना सभागृह में. श्री प्रदीप जैन, सुश्री शिला वैद्य, डॉ. भोजराज शर्मा,श्री श्याम सिंह सिकरवार, श्री संजय कुलकर्णी, श्री विनोद काबरा, श्री प्रदीप जोशी, श्री उमेश गुप्ता,श्री अनिल गुप्ता श्रीमती नुसरत जहां, सुश्री जयनित बग्गा, श्रीमती चंद्रकला नाटानी सहित बड़ी संख्या में बौद्धिकजन और पत्रकारगण उपस्थित थे।


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ