उम्र अब ढलान पर है जरा सा आवेग तो ज़ाहिर है
ख़ुद को साबित करना है ये निराशा तो ज़ाहिर है
माकूल हो आगे का सफ़र ये सिफ़र उम्मीद तो ज़ाहिर है
ख़ुदा का शुक्रिया उसकी रज़ामंदी से ही तो ज़ाहिर है
दलीलों के फ़ासले बहुत है वकालत दीगर होना तो ज़ाहिर है
आज़मा के देखा ,अब थक के यक़ीन करना तो ज़ाहिर है
लड़े भी बहुत अब मुस्कुरा के हार जाना तो ज़ाहिर है
गुलिस्ताँ में फूल कम है ख़ुश्बूओं की तंगी तो ज़ाहिर है
हौसला पस्त नहीं उम्मीद की उड़ान तो ज़ाहिर है
उम्र अब ढलान पर है जरा आवेग तो ज़ाहिर हो ।।
-डॉ के रोशन राव, इंदौर
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