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आदमी का घर (लघुकथा) -अशोक आनन


वह आती । कुछ देर बैठती...... और ...... फ़िर उड़ जाती । उसका यह क्रम कई दिनों से चल रहा था ।
आज वह नहीं आई । सोचा..... कहीं दूर निकल गई होगी । थोड़ी देर में लौट आएगी । लेकिन जब वह काफी देर तक भी न आई तो मेरी बेचैनी बढ़ने लगी । सुबह से दोपहर , दोपहर से शाम , शाम से रात हो गई । अंधियारा गहराने लगा । मैं सोने का उपक्रम करता हुआ उसका बेसब्री से इंतज़ार करने लगा । पता नहीं , मेरी कब आंख लग गई ।
सुबह जब नींद खुली , देखा..... उसका घोंसला खाली था । दिन गुजरते गए पर ..... वह फ़िर कभी नहीं आई । बाद में पता लगा ...... उसने अपना घोंसला किसी झाड़ पर बना लिया था ।
मुझे लगा...... शायद उसने सोचा हो ...... वह जिस घर में अपना घोंसला बना रही है...... वह घर आदमी का है ।

-अशोक आनन, मक्सी

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