उज्जैन। दिखाई देने और दर्शन करने के बीच बहुत बड़ा अंतर है। प्रेमरूप दिखाई नहीं देता किंतु अंतर्दृष्टि में विराजमान होता है , यह प्रेम का दर्शन है। ऐसे दर्शन हमारी लोक दृष्टि और कला दृष्टि में स्पष्ट रूप से होते हैं। लोक और कला की दृष्टि सब कुछ समेट लेने की दृष्टि है, समग्रता की दृष्टि है। यह अपने आप में संवाद की दृष्टि है और नैसर्गिकता की दृष्टि है। हम भले ही विभिन्न जातियों, रहन-सहन के कारण विविधताएं रखते हैं किंतु फिर भी एक दूसरों पर आश्रित हुए बिना हमारी पहचान नहीं बन सकती। यही हमारी विशेषता है और यह विशेषता भारतीय लोक में स्पष्ट दिखाई देती है। भारतीय लोक का स्वरूप पारस्परिक साझेदारी का है, जबकि पाश्चात्य में ऐसा नहीं है। वहां फोक को ही लोक कहा जाता है, जबकि फोक तो वहां के असंस्कृत समाज का प्रतिनिधित्व करता है। उक्त विचार प्रख्यात कलाविद और इतिहासविद माननीय श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने कर्मयोगी स्व. कृष्णमंगल सिंह कुलश्रेष्ठ की प्रेरणा और डॉ शिवमंगल सिंह सुमन की स्मृति में आयोजित 21 वीं अखिल भारतीय सद्भावना व्याख्यानमाला के तृतीय दिवस पर मुख्य वक्ता के रूप में व्यक्त किये।
भारतीय लोक दृष्टि एवं कला दृष्टि विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने कहा कि भारतीय लोक में जो है वही कला में भी है। हमारे यहां पोर्ट्रेट जैसा शब्द नहीं है किंतु व्यक्ति -चित्र शब्द है। निश्चित रूप से पाश्चात्य वाला पोर्ट्रेट व्यक्ति प्रमुख होता है, क्योंकि वहां व्यक्ति के बलिष्ठ होने को सर्वोपरि माना जाता है, जबकि हमारे यहां लोक को सर्वोपरि माना जाता है। भारतीय कला में शौष्ठव पर अधिक बल दिया गया है। हमारी कलाओं ने जो अभिव्यक्त किया है उसके अनुसार राम की पहचान बिना धनुष के नहीं बनती, कृष्ण की पहचान मुरली के बिना नहीं बनती, महावीर बुद्ध की पहचान मस्तक के पीछे वलय के बिना नहीं बनती। हमारे यहां चित्रों में, शिल्पो में, संगीत में, गायन में, भित्ति -चित्रों में या अन्य कलाओं में भारतीय लोक के दर्शन होते हैं।
समारोह की अध्यक्षता करते हुए विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि भारत की कला दृष्टि और लोक दृष्टि संपूर्ण विश्व को प्रभावित करती है। भारत की कला और लोक दृष्टि हमारे शास्त्रों और शास्त्रीय ज्ञान से उत्पन्न मूल्यों और संस्कृतियों को समान रूप से महत्व देती है, इसलिए भारतीय कला और लोक दृष्टि संपूर्ण विश्व में विशिष्ट है। भारत ने लोक और कला को सीमित और संकीर्ण दायरे से बाहर रखा है। भारतीय लोक का अपना शास्त्र है, अपनी ही दृष्टि है और अपना ही ज्ञान है। हमारी लोक और कलादृष्टि यथार्थ रूप से प्रस्तुतीकरण नहीं करती बल्कि वह हमारे हृदय और आत्मा को प्रभावित करने पर विश्वास करती है। यही कारण है कि हमारी लोक चित्रकलाओं में चंद लकीरों से ही विभिन्न पशुओं की या अन्य आकृतियां अभिव्यक्त हो जाती है।
कार्यक्रम के आरंभ में संस्थान की शिक्षिकाओं द्वारा सद्भावनापूर्ण गीत की प्रस्तुति दी गई। व्याख्यानमाला को सुनने के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के सद्भावना सभागृह में विक्रम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. बालकृष्ण शर्मा, साहित्यकार डॉ. शिव चौरसिया, डॉ. पिलकेंद्र अरोरा, डॉ.देवेंद्र जोशी, प्रोफेसर एच एल माहेश्वरी, डॉ नंदकिशोर श्रीवास्तव, श्री संतोष सुपेकर, श्री योगेश पोरवाल, राष्ट्र भारती शिक्षा महाविद्यालय की प्राचार्य डॉ रश्मि शर्मा, विद्यालयीन प्राचार्य श्रीमती मीना नागर, राष्ट्र भारती विद्यालय की प्राचार्य श्रीमती मयूरी बैरागी ,श्रीमती मोनिका श्रीवास्तव सहित बड़ी संख्या में बौद्धिकजन और पत्रकारगण उपस्थित थे। व्याख्यानमाला को उज्जैन के पहले कम्युनिटी रेडियो दस्तक 90.8 एफ एम पर भी लाखों श्रोताओं द्वारा सुना गया। संचालन श्रीमती आरती तिवारी ने किया।
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