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बात करें क्‍या लोकतंत्र की (गीतिका) -आकुल


(छंद- ताटंक)

बात करें क्‍या लोकतंत्र की, इसके खेल निराले हैं।
लोकलाड़ले नेता सब जनता के देखे-भाले हैं।1।

सुख-सुविधा सम्‍पन्‍न राष्‍ट्र हो, सर्वोपरि जनहित निर्णय,
स्वस्‍फूर्त है गति विकास की, लो‍कनिहित हर पाले हैं।

पंचवर्षिय प्रपंचतंत्र है, शरणनीति है सुनियोजित,
जनता के मुँह पर लग जाते, लोकतंत्र में ताले हैं।

इक थैली के चट्टे-बट्टे, साठ-गाँठ माहिर नेता,
साम-दाम अरु दंड-भेद में, आफ़त के परकाले हैं।

मूक देखते न्‍यायालय भी, दंडविधान, प्रशासन भी,
कोविधि निकले राह तीसरी, कूटनीति में ढाले हैं।

चोर-चोर मौसेरे भाई, करते घोटाले ढेरों,
साथ रखें कल-पुर्जे-कुंदे, महँगी कारों वाले हैं।

कहते हैं चाणक्‍य-विदुर भी, छल-बल बिना न राज चले,
इसीलिए शतरंज में आधे, होते खाने काले हैं।

-गोपालकृष्ण भट्ट आकुल, कोटा

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