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अनहद नाद (कविता) -राजेन्द्र गुलेच्छा 'राज'


कारखानों का कोलाहल
वाहनों का पों पों शोर,
सायरन बजाती एम्बुलेंस
रास्ता रोकतें पशु ढोर।

भ्रमित जब करते हैं नेता
दंगाई करते हो हल्ला,
गली मोहल्ले हैं परेशान
शोर मचाते गेंद और बल्ला।

घर सर पर उठ जाता है
सास बहू में होता विवाद,
किचन में भी बर्तन पतीलें
करते हैं कर्कश संवाद।

छोटी छोटी बातों पर
बड़े बड़े होते हैं दंगल,
शोर शराबें में छीन जाते
घर के सारे सुख और मंगल।

जब जब तड़पाती हैं मुझें
बाह्य जगत की सब आवाजें
तब अँगूठे से कर देता हूँ
बंद कानों के दो दरवाज़े।

मौन होकर जब मैं सुनता
भीतर बहता अनहद नाद,
तब उभर कर आता सम्मुख
आत्मा का पावन निनाद।

-जैन राजेन्द्र गुलेच्छा ‘राज’,बैंगलोर

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