विचारों को बिना क़िसी डर भय या लाग- लपेट के प्रकट करना ही अभिव्यक्ति हो सकता है। अभिव्यक्ति के प्रकटीकरण का माध्यम लेख, चित्र, कार्टून- मूर्ती निर्माण, प्रदर्शन अथवा कोई अन्य माध्यम भी हो सकता है। यह भी सच है कि अभिव्यक्ति के प्रकटीकरण पर सभ्य समाज में कोई भी बंदिशें नहीं लगाई जा सकती हैं।
क्या इसका तात्पर्य यह समझा जाए कि किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष को अपनी भावनायें व्यक्त करने का निरंकुश अधिकार दे दिया जाए? उन्हें छूट दे दी जाये कि समाज एवं देश के हितो के विरुद्ध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरूपयोग करें अथवा राष्ट्र विरोधी ताकतों के हाथ का खिलौना बनकर धर्म एवं समाज की जड़ों पर कुठाराघात करें? अगर इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहा जाए जिसमे नैतिकता का बोध न हो तो ऐसी अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाना ही चाहिए।
अगर कोई कलाकार किसी नग्न चित्र में सौन्दर्य दर्शाता है तो यह उसकी अभिव्यक्ति हो सकती है परन्तु उसी चित्र के माध्यम से जब वह किसी वर्ग, धर्म विशेष के देवी देवता, आराध्य अथवा महिला विशेष के शरीर में इस सौंदर्य को दर्शाने का प्रयास करता है तो वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार करता है। कालान्तर में हमने देखा कि मशहूर चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन ने अपने कला चित्रों के माध्यम से भारतीय समाज में विष घोलने का काम किया था। इसी प्रकार साहित्य के क्षेत्र में भी अनेको लेखकों ने केवल हिन्दू समाज पर ही प्रहार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समझ लिया है। इतिहास साक्षी है कि तसलीमा नसरीन व सलमान रुसदी ने मात्र इस्लाम धर्म में व्याप्त कुछ बुराइयों को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया था तब सम्पूर्ण मुस्लिम समाज तथा अभियक्ति के तथाकथित पैरोकार इन लोगो के विरुद्ध खड़े हो गए।
इसका तात्पर्य यह समझा जाए कि समाज के सबसे पुराने, सभ्य, संस्कारवान, सहनशील समाज के विरुद्ध बोलना- लिखना तथा उनके आराध्यों का अपमान करना अथवा आतंकवादियों तथा बदमाशों की पैरोकारी करना ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? जब कोई चित्रकार हिन्दू देवताओं के नग्न चित्र बनाये अथवा कोई कवि मंचों पर राधा कृष्ण के अश्लील गीत बनाकर गाये अथवा कोई मानसिक विकलांग वामपंथी साहित्यकार सिखों के धर्म गुरु व समाज के रक्षक गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज को लुटेरा लिखे तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार कहाँ चले जाते हैं?
उपरोक्त सभी तथ्यों को जानने समझने के उपरान्त अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की व्याख्या नए सिरे से करने की आवश्यकता है। विगत दिनों देखने में आया कि कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी कश्मीर के मुद्दे को लेकर अलगाववादियों के समर्थन में खड़े दिखाई दिए अथवा आतंकवादियों की रिहाई के लिए लामबंद होते दीखे। प्रश्न यह है कि राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध बोलने वालों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं अपितु राष्ट्र द्रोह के अंतर्गत देखना चाहिए। सरकार और प्रशासन का दायित्व है कि तुष्टिकरण तथा भेदभाव की नीतियों को त्यागकर समानता के साथ कार्यवाही करनी चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार केवल उस व्यक्ति अथवा संस्था को ही मिल सकता है जो राष्ट्र हितों को प्रथम तथा नैतिकता को महत्त्व दे।
-डॉ अ कीर्तिवर्धन, मुज़फ्फरनगर
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