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दीपावली (लघुकथा) -डॉ लता अग्रवाल 'तुलजा'


"अरे नवकी दुलेन ! तुम्हार पहली दीवाली हैं अउर तुम दोनों आ नहीं पा रहे बहुत बुरा लग रहा है हमको।"
"हमको भी अम्माजी , बहुत याद आ रही है आप सब की।"
"अच्छा सुन बहुरिया, दीवाली पर न सारा कूड़ा कबाड़ीवाले को दे देना, अच्छा-अच्छा सहेज लेना।"
“जी अम्मा जी ।"
“अउर सुन बिटिया ! पूरे जाले अच्छी तरह साफ कर लेना , कुछ फटा पुराना हो तो उसे बदलकर ना नया कर लेना, अपने आस- पास खुशियां सजाए रखना बिटिया ।"
"ठीक बा अम्माजी, हम न अपने दिल में भरी सभी शिकायतों के कबाड़े को रद्दी वाले को बेच दिए हैं।"
“अउर ना नई जगह पर नए रिश्ते सहेज लिए हैं।"
"ठीक बा ।"
“सुनिए न अम्माजी ! हमने न दिमाग में बरसों से भरे सारे जाले साफ कर दिए है। पुराने रिश्तों की उधड़न को सीकर फिर से नए कर लिए हैं। अउर ना हमारे पास जो एक्स्ट्रा खुशियां थीं वो हम जरूरत मंदों को बाँट दिए है। ठीक किये ना हम अम्माजी ...?"
"बहुत ठीक किये हो बिटिया"
"दीपावली पर साक्षात् लक्ष्मी जी उसके द्वार पर खड़ी थी।"

-डॉ, लता अग्रवाल ‘तुलजा’,भोपाल

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