Subscribe Us

एक दिया जलाया जाये (कविता) -आशीष कुलश्रेष्ठ


कहीं दूर अगन मेें अँधेरा गहराता है,
उजास भरी दुपहरी में वह शरमाता है,
कहीं श्वेताभ में उसकी कालिमा रह न जाये,
अँधेरे को चीरने को एक दिया जलाया जाये।

हारा नहीं है वह, कोशिश करता है,
सुना है बूँद-बूँद से घड़ा भरता है,
भले छिटका ही सही उसे अपनाया जाये,
हर पथ हर पग एक दिया जलाया जाये।

उसमें किंचित भी भय भरा न हो,
अनवरत घात प्रतिघात से डरा न हो,
जलें सब दीप ऐसा दीपक राग गाया जाये,
सर्वत्र दिशाओं मेें एक दिया जलाया जाये।

लहलहाते खेत खलिहानों की गंध लुभाती है,
अडिग वीर जवान की शौर्यता कहाँ सुलाती है,
अब बाधााओं की सीमा को लाँघा जाये,
उस पार भी एक दिया जलाया जाये।

तिमिर त्याग, स्वर्ण रश्मियाँ अपनानी होंगी,
नव आभा की एक नई लकीर बनानी होंगी,
अब अश्रुओं के रथ पर कोई शेष रह न जाये,
स्नेह, सौहार्द का भी एक दिया जलाया जाये।

कारा तोड़, श्रमिक व्यथा का भी भान रहे,
आँचल से कोई छूटे न ये भी संज्ञान रहे,
बहुत हुआ अब, अमावस का अंश हटाया जाये,
धरा पर पूनम लाने को एक दिया जलाया जाये।

-आशीष कुलश्रेष्ठ, लखनऊ

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ