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कुआं (लघुकथा) -अशोक आनन


उन्होंने कुआं खुदवाया । पानी की समस्या हल हो गई ।कुछ दिन तो सब कुछ ठीक-ठाक चला । लेकिन... उसके बाद वहां किसी न किसी बात को लेकर रोज़ झगड़ा होने लगा । और ...
एक दिन उसी झगड़े ने साम्प्रदायिक दंगे का रूप ले लिया । देखते ही देखते ...बस्ती घास - फूस की तरह धुं - धुं कर जलने लगी । ऐसे संवेदनशील समय भी उसी कुएं ने आग बुझाने का सद्कार्य किया ।
लेकिन...लोग फ़िर भी उसे खरी-खोटी सुनाने से बाज न आए । उनके द्वारा उसे जी-भरकर कोसा गया ।
उस खुद्दार कुएं से यह सब सहा न गया...और एक दिन उसने आत्महत्या कर ली ।
अब वे ही लोग उसे याद कर ...प्यास से तड़पने लगे ।

-अशोक आनन, मक्सी

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