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खुल के जीवन सदा जिया मैंने (ग़ज़ल)


अपने हाथों ज़हर पिया मैंने
ख़ुद को जीवित बचा लिया मैंने

उससे मिलने के लिये पार किया
तैर कर आग का दरिया मैंने

गिरेबाँ चाक पड़ा है कब से
आज तक भी नहीं सिंंया मैंने

मौत की फिक़्र भी रही लेकिन
खुल के जीवन सदा जिया मैंने

जब भी चाहत हुई खुशी की तो
दर्द का तर्जुमा किया मैंने

-कैलाश मनहर, मनोहरपुर(जयपुर)

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