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छठ परंपराओं का सैलाब (कविता) -संतोष कुमार महतो

महिनों पूर्व से मधुर गीत गुनगुनाती
माँ गेहूँ बिनती
सुबह से शाम तक एकटक करती
गेहूँ को स्वच्छता प्रदान करने में
मिट्टी के चुल्हे बनाने में जुटी रहती
जैसे कि उठा हो सुसंस्कृत परंपरा का ज्वार
छठ की धुन में व्यस्त हो उठे किसान-कुम्हार
बना रहे हैं चाक में आस्था के बर्तन
बुनकर भी टोकरी व सूप को दे रहे हैं अंतिम रूप
चारों दिशाएँ छठ परंपरा की बयार में उठी है झूम
इधर आगाज हुआ नहाय -खाय की दिव्य परंपरा
गंगा - यमुना, ब्रह्मपुत्र के तट पर 
भास्कर की हो रही है आराधना
प्रकृति के कद्दू- भात व चना दाल से
व्रतधारियों ने किया पारंपरिक सात्विक भोजन
भोर होते ही व्रतधारी आस्था के चादर लपेेटी
मिट्टी के चुल्हे पर बना रही होती गुड़ की मीठी खीर
करती है संध्या में खरना से निर्जला व्रत की आरंभ
बनाने में लीन रहती पारंपरिक प्रसाद ठेकुआ
बांस की टोकरी व डाला में सज उठी 
नारियल,डाभा व ऋतुफल
भावनाओं की दीप व सिंदूर की आभा 
चमक रही है सूप में
संध्या में लाखों माताओं द्वारा 
सूर्य देव की आराधना में
नदियों के किनारे फैला हुआ 
प्रेम का सद्भाव आता है नज़र
व्रतियों की अंजली से अर्पित नीर से
सूर्य देव को विदाई देते हुए
फिर भी इंतजार कर रही हैं भोर का लालिमा
आदित्य देव को अर्घ्य देने की है श्रद्धा
छठ रगों में बसी हुई प्रकृति की पूजा है
भक्ति, श्रद्धा, प्रेम,भावना व परंपराओं का
सैलाब है आस्था का महापर्व छठ

-संतोष कुमार महतो, विश्वनाथ (असम)

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