Subscribe Us

खुशियाँ भी बिकती है (लघुकथा) -डाॅ.क्षमा सिसोदिया


दीपशिखा का मन आज कुछ उखड़ा-उखड़ा सा था।अपना मन बहलाने के लिए बाजार की तरफ चल दी।दीपावली के सजावटी सामानों से बाजार भरा पड़ा था। उन सामानों को देख कर उसे और कोफ्त हो लगी।
"ऊफ्फफ..., कितनी भीड़ बढ़ जाती है...।"

एक तरफ मिट्टी का दीपक वाला बैठा था,जो इस बार बारिश की मार से माल नही तैयार कर पाया था। जब दीपशिखा ने उसके बताए कीमत पर ही दीपक खरीदा तो उसके चेहरे की चमक दीपावली की रोशनी जैसी बढ़ गयी।

फिर थोड़ी आगे बढ़ने पर सड़क किनारे एक कोने में बैठी वृद्ध अम्मा से लक्ष्मी पूजन का सामान खरीद कर उससे खुशी बटोरी और अपनी झोली में भर कर घर चलने को हुई ही थी कि एक दिव्यांग किशोर उसके पास आया। उसके हाथ में कपड़े से बनी हुई रंग-बिरंगी चिड़ियाँ थीं। जिसके पंखों के ऊपर घुघंरू लगे थे। हवा से जब वह चिड़िया हिलती तो उससे एक मधुर सी आवाज़ सुनाई देती। जैसे वह कह रहीं हो कि- "बोलो तुम भी तो कुछ बोलो, गाओ मेरे साथ, क्या तुम्हे गाने नही आता...?"

"देखो उस बच्चे को, वह बिना पाँव के भी कितना खुश है।"

इतनी देर से उदास दीपशिखा ने अपना पर्स खोल कर उस किशोर के चेहरे की मुस्कान में बढ़ोत्तरी कर दिया और उन निर्जीव सी खुशियों को अपने साथ घर ले आई, जिसके साथ-साथ उन अनजान चेहरों की खुशी भी घर आ गयी थी।

-डाॅ क्षमा सिसोदिया, उज्जैन

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ