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मानस या गीता- क्या हो भारत का राष्ट्रीय ग्रंथ -डॉ अरविन्द मिश्रा


एक कार्यक्रम में पद्मविभूषण जगद्गुरु श्री रामभद्राचार्य जी की कुछ पुस्तकों का विमोचन प्रधानमंत्री द्वारा किया गया। इस अवसर पर श्रीरामभद्राचार्य ने मांग की कि रामचरित मानस को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किया जाय। यह मांग विभिन्न अवसरों पर पहले भी उठती रही है। जगद्गुरु के एक एचएमवी भी इस मांग को जोर शोर से उठाते रहे हैं।

निश्चय ही रामचरित मानस एक अद्भुत अनुपम ग्रंथ है जिसका विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। संत गोस्वामी तुलसीदास जी विरचित यह काव्य आम आदमी से लेकर उद्भट विद्वानों के बीच प्रशंसनीय रहा है। रामकथा को अपनी विलक्षण बुद्धि और काव्यात्मक प्रतिभा से संत तुलसी ने एक कालजयी कृति बना दिया।

इस ग्रंथ के बारे में समय समय पर विद्वानों ने जो टिप्पणियां दी है उससे मध्ययुगीन इस संत की काव्यात्मक प्रतिभा रेखांकित होती है। भावानुभूति और दार्शनिक ज्ञान के इस महासागर के बारे में कहा गया है - "ज्यों ज्यों आगे बढ़ते हैं, गहराई बढ़ती जाती है मगर खारेपन का नाम नहीं मिठास ही बढ़ती जाती है। और यह भी कि "कविता करके तुलसी न लसे कविता लसी पा तुलसी की कला "(महाकवि हरिऔध)

किन्तु क्या रामचरित मानस को सचमुच राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करना चाहिए? मेरी अल्पबुद्धि और विनम्र भाव से नहीं। यद्यपि मुझे रामकथा का यह अनुपम ग्रंथ अतिशय प्रिय है मगर इस मुद्दे को एक व्यापक फलक पर रखकर देखना होगा। केवल भावनिष्ठता से लिया गया निर्णय सर्वमान्य नहीं होगा। मेरी अल्प समझ में श्रीमद्भगवद्गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित होना एक वस्तुनिष्ठ निर्णय होगा।

आईये इस विनम्र प्रस्तावना को गहराई से समझते हैं।यह तथ्य है कि रामकथा भारत सहित अनेक पूर्वी एशियाई देशों में आदिकाल से लोकप्रिय और विभिन्न रुपों में प्रचलित है। तुलसीदास स्वयं वाल्मीकि कृत रामायण को मूलतः प्रामाणिक रामकथा ग्रंथ मानते हैं। अपनी विनम्रता में वे यहां तक कह जाते हैं कि रामकथा का सेतु तो आदिकवि ने ही बना दिया था जिस पर वे (तुलसी) एवं अन्य कविजन चींटी की तरह पार उतरने के प्रयास में हैं। जाहिर है यदि स्वयं तुलसी को ही राष्ट्रीय ग्रंथ के चयन के लिए अवसर मिलता तो वे मानस को इसके लिए आगे नहीं रखते।

दूसरे स्वयं तुलसी ने पहले से ही उपलब्ध कथा को एक नया कलेवर दिया। अपने काव्यात्मक प्रतिभा की मौलिकता दी। और उन्होंने सायास इस ग्रंथ को लोकभाषा अवधी में रचा। जो एक क्षेत्र विशेष को ध्यान में रखकर प्रणीत हुई।

हालांकि स्वयं संत कवि ने इसे स्वान्तः सुखाय लिखने की घोषणा की मगर रामकथा के मर्मज्ञ अच्छी तरह जानते हैं कि इस जनकाव्य की रचना के पीछे तुलसी के गहरे निहितार्थ थे। वे तमाम सामाजिक धार्मिक वितंडाओं, विभेदों और इस्लामी जिहाद के बढ़ते प्रभाव को दूर करने के लिए एक सम्यक दृष्टि और संदेश देना चाहते थे। और एक भदेस जनभाषा में मानस की रचना कर उन्होने ज्ञान के दर्प से चूर संस्कृत के कथित प्रकांड विद्वानों को भी आईना दिखाया।

भारत जैसे विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों के देश में आंचलिक अवधी भाषा की एक रचना को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित होना एक बड़ा बखेड़ा खड़ा कर देगा और यह भारत के विस्तृत भूभाग में उचित ही कतई स्वीकार्य नहीं होगा। जहां खड़ी बोली हिन्दी की ही स्वीकार्यता बस कुछ चंद प्रदेशों को छोड़कर अधिकांश प्रदेशों में नहीं है वे प्रदेश भला एक आंचलिक भाषा के काव्य को क्यों स्वीकार करेंगे?

हां, संस्कृत को लेकर भारत में कहीं वैसा विरोध नहीं है। दक्षिण भारत में तो संस्कृत आज भी समादरणीय है। इस लिहाज से तो रामायण को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने पर विचार किया जा सकता है। किंतु क्या यह तमिल भाषियों को स्वीकार्य होगा? उनका अपना कंबन रामायण है। मूलकथा तो राम की कथा ही है उसमें नवीनता भिन्न कवियों की रचनात्मक प्रस्तुति से आती है।

ऐसी स्थिति में श्रीमद्भगवद्गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने में कोई अड़चन नहीं दिखती। यह एक ऐसा ग्रंथ है जो भारतीय ज्ञान का समुचित प्रतिनिधित्व करता है। शंकराचार्य से लेकर अनेक विद्वानों ने इससे प्रभावित होकर इस पर भाष्य लिखे हैं। यह वेदों का उत्कर्ष है और वेदों के किंचित निरर्थक कर्मकांडों, यज्ञों और कर्मफल से जुड़ी मान्यताओं के पृथक एक नयी जीवन दृष्टि देता है।

श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय दर्शन का पीयूष है। और मजे की बात यह है कि इस महान ग्रंथ की पुनर्खोज अभी पिछली सदी में पश्चिम के विद्वानों ने इस मुगालते में कर दिया कि यह उनके एकेश्वरवाद सिद्धांत का ही प्रतिपादन करता है। "कृष्ण भगवानस्वयं" को वे इसी रुप में देखते भये। स्वामी प्रभुपाद ने भी इसी पहलू पर इस्कान सरीखी विश्वव्यापी धार्मिक संस्था की नींव डाली। इन प्रयासों से आज श्रीमद्भगवद्गीता एक वैश्विक ग्रंथ है। इसके प्रतिपाद्य समूची मानवता को एक नयी दृष्टि देते हैं।

विषय एक लम्बे विवेचन की मांग करता है। अति विस्तार से बच रहा हूं और मित्रों को आमंत्रित करता हूं कि इस विचार यज्ञ में वे भी हविदान करें। श्रीमद्भगवद्गीता जैसे आर्ष ग्रंथ को हमारा राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने पर इसकी स्वीकार्यता केवल भारत में ही नहीं पूरे विश्व में होगी।

-डॉ अरविन्द मिश्रा
(अदिति)

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1 टिप्पणियाँ

  1. उल्लिखित दोनों किताबें सातवीं और पंद्रहवीं शताब्दियों की रचनाएं हैं। केवल उत्तर भारत के चांद राज्यों में, सिर्फ ब्राह्मणी संस्कृति से प्रभावित कुछ करोड़ लोगों के लिए , जिन्हें तार्किकता और विवेक से कोई लेनादेना नहीं, ऐसे लोगों के लिए भले ही मानस और गीता पवित्र ग्रंथ हों, आम भारतीयों पर थोपना अनुचित ही नहीं, अप्रासंगिक और हास्यास्पद प्रस्ताव है। सारा दक्षिण भारत बंगाल, असम, उत्तरपूर्व, महाराष्ट्र आदि भारत के तीन चौथाई भूभाग के निवासी तो राम चरित मानस का नाम तक नहीं सुने होंगे।
    दूसरे, इस प्रस्ताव में दलितों, पिछड़ों, और उत्तर भारत के साथ साथ देश भर में फैले आदिवासियों को भी नजर अंदाज करते हुए मुट्ठीभर लोगों की पूर्वाग्रही सोच को समूचे एक सौ चालीस करोड़ भारतीय जनता पर लड़ ने का काम होगा। स्त्रियों को ग्रामीण जनता ( गंवार) शूद्र अर्थात् वर्तमान पिछड़ों को के पशुओं से जोड़ कर वांचना और ताड़ना का पत्र बतानेवाले मानस या दूसरों के लिए कर्म भर करते रहने के दाम्भिक आदेश देने वाले ये किताब भला राष्ट्रीय कैसे हो सक ते हैं। जनोन्मुखी जनवादी और जनतांत्रिक संविधान ही एकमात्र ऐसा ग्रंथ है।

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