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सुखी आदमी (व्यंग्य) -डाॅ रमेशचंद्र


आपने शायद ही किसी सुखी आदमी को देखा होगा, लेकिन मैंने देखा है और देख कर आश्चर्यचकित भी हुआ। मेरे लिए यह संसार का नवां या दसवां आश्चर्य था। मैं सोच सोच कर हैरान था कि इतने बड़े जगत् में यह इकलौता सुखी आदमी है। उसे साक्षात् देख कर और उसके दुर्लभ दर्शन करके मैं धन्य हो गया था। अपने आपको सौभाग्यशाली समझने लगा था। सोचने लगा कि वैसे तो संसार में सभी दुखी प्राणी हैं और आदमी नामक जीव तो सबसे अधिक दुखी है। शायद इस दुख भरे संसार को देख कर ही गुरू नानकदेव ने कहा था कि " नानक दुखिया सब संसार ।"

जब सभी दुखी है तो फिर सुखी कौन है। कोई तो होगा, जिसे देख कर कह सकते हैं कि भाई यह सुखी है। वैसे सभी एकदूसरे को देख कर कह सकते हैं कि यह सुखी है। सोचने में आता है कि यह मुझसे ज्यादा सुखी है। सुख का अनुभव सामान्यतः सभी लोग करते हैं, परंतु कोई खुल कर नहीं कह पाता कि मैं सुखी हूं। जबकि दुख का सभी गीत गाते रहते है " दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना जहां नहीं चैना वहां नहीं रहना..! "

परंतु वह जहां भी जाता हैं, जिधर भी जाता है, दुख उसके पीछे पीछे चला आता है। यह दुख भी ऐसा मित्र है कि साथ ही नहीं छोड़ता। कभी पीछे- पीछे तो कभी आगे-आगे चलता है। लेकिन किसी किसी भले आदमी के तो वह साथ-साथ ही चलता है कि कहीं वह बिछड़ न जाए या कहीं गुम़ न हो जाएं। दुख अपने सच्चे मित्र का कभी साथ नहीं छोड़ता और सदा उसका हाथ पकड़ कर चलता है। दुख इस मामले में अपनी सच्ची मित्रता निभाता है।

मुझे अभी तक जो कोई भी मिला, दुखियारा ही मिला। मैं उनके दुखों से दुखों से सराबोर हो जाता हूं। हालांकि मैं भी दुखी हूं, लेनिन मैं यह देखना चाहता था कि आखिर सुखी आदमी कौन होगा। वह मुझे कब मिलेगा या वह कब दिखाई देगा। और मिलेगा भी या नहीं! यदि किसी दिन मैं सुखी आदमी को ढूंढ लूंगा तो मैं समझ जाऊंगा कि नहीं, संसार में सभी दुखियारे नहीं हैं, कुछ सुखियारे भी हैं। बस, तबसे मेरी सुखी आदमी की खोज़ प्रारंभ हो गयी। मैं जब भी कहीं घूमने -फिरने या कुछ खरीदारी करने निकलता, मैं हर आदमी के चेहरे- मोहर, चाल -ढाल और हाव -भाव को देखता और अनुमान लगाता कि शायद यह सुखी होगा। लेकिन शीध्र ही मेरा भ्रम का आईना टूट जाता और उस आदमी की असली सूरत यानी दुखी इंसान दिखाई दे जाता। जब मैं उसकी किसी से दुख भरी बात सुनता या उसका दुख भरा चेहरा देखता।

जिस तरह से क़ब़ीर साहब " बुरा जो देखन में चला..! " यानी बुरे आदमी की खोज़ में चले थे उसी तरह मैं भी सुखी आदमी की खोज़ में लगा था। इस खोज़बीन में मेरा सीधा मुकाबला क़बीर साहब से था। इस दिलचस्प मामले में आखिर कबीर साहब हार गये। उन्हें बुरे आदमी के जीवन भर दर्शन नहीं हुए और उन्हें आखिर में कहना पड़ा -" मुझसा बुरा न कोय..! "

लेकिन मैं बड़ा भाग्यशाली निकला। एक दिन मुझे एक सुखी आदमी दिखाई दे गया। वह सड़क के फुटपाथ पर बने पार्क की कुर्सी पर बैठा -बैठा पोहा -ज़लेबी खा रहा था। पहले तो मैंने सोचा, यह ऊपर से तो सुखी दिखाई देता है, परंतु हो सकता है यह भीतर से यानी मन से दुखी होगा।यह सोच कर मैंने उसे दुखियारे आदमी की सूची में डाल दिया। अगले दिन फिर मैंने उसी आदमी को जम्बू फल खाते देखा, फिर अगले दिन उसे अनार और अंगूर खाते देखा..! इस तरह उस भले आदमी को प्रतिदिन कुछ न कुछ खाते देख कर मैं समझ गया कि यही एकमात्र आदमी है जो सुखी है। मैंने जब भी जहां भी , सड़क गली, चौराहे या फुटपाथ पर उसे देखा, हमेशा कुछ न कुछ खाते और कभी कभी फलों का जूस, गन्ने का रस तथा नारियल पानी पीते देखा था। मैं सोचने लगा कि इससे बड़ा " सुखी आदमी " होने का और क्या प्रमाण हो सकता है? जो आदमी बेफिक्र और बेझिझक सड़क, गली, मोहल्ले, काॅलोनी, पार्क, फुटपाथ और चलते फिरते खा -पी सकता है और अकेला ही घूमता फिरता, टहलता और भटकता रहता है, जो कभी यहां, कभी वहां और कभी इधर कभी उधर आता -जाता दिखाई दे जाता है। जो शायद ही घर पर रहता हो , जो घर और परिवार की चिंता से मुक्त होकर, दिन -दिन भर बाहर ही यायावर की तरह घूमता फिरता और विचरण करता रहता हो, निसंदेह वह सुख से परिपूर्ण एक सुखी आदमी ही हो सकता है।

अब मेरी धारणा पक्की हो गयी थी कि यही एक सच्चा आदमी है जो सुखी है। इसे सुखी आदमी का सर्टिफिकेट दिया जा सकता है। मैं आर्किमिडिज़ की तरह सड़क पर "यूरेका! यूरेका!! "कह कर चिल्लाने ही वाला था कि मुझे ध्यान आ गया कि मैं सार्वजनिक सड़क पर हूं और ऐसा करके लोगों के ध्यान का केंद्र बन जाऊंगा, फिर यदि मामला पुलिस तक पहुंच गया तो अपनी मुश्किल खड़ी हो जाएगी। अतः मैंने अपने भीतर घुसी आर्किमिडिज़ की आत्मा को निकाल कर बाहर किया और चुपचाप अपने आशियाने पर आ कर अपने बिस्तर में दुब़क गया। मुझे खुशी थी कि मैं जीते जी एक सुखी आदमी को देख सका।

-डाॅ रमेशचंद्र, इंदौर

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