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मन उजियारा हो जाए (कविता) -डाॅ रमेशचंद्र


दमक उठे दीपों से घर -घर
मन उजियारा हो जाए
फूट पड़े ज्योति के निर्झर
दूर अंधियारा हो जाए।

दीपशिखा ने कितने आंगन
कितने घर प्रकाश दिया है
तारों भरा दीपों के जैसा
धरती को आकाश दिया है
मन का तम दूर हटे और
ज़गमग़ जग सारा हो जाए

फूट पड़े ज्योति के निर्झर
दूर अंधियारा हो जाए।

इस धरती पर प्रेम प्यार के
अपनेपन के दीप जले
मिटे कलुषता मन की सारी
हिल मिल कर संग चले
बांट रखा जिसने मानव को
वह दूर किनारा हो जाए

फूट पड़े ज्योति के निर्झर
दूर अंधियारा हो जाए।

एक और निर्धन की बस्ती
एक ओर क्यों महल खड़े
एक ओर रोटी के लाले
एक ओर हीरे मोती जड़े
अमीरी और ग़रीबी मिटे
समता की धारा हो जाए

फूट पड़े ज्योति के निर्झर
दूर अंधियारा हो जाए।

-डॉ रमेशचंद्र, इंदौर

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