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पर निन्दा नहीं,स्वयं की आलोचना करें -पदम चन्द गाँधी


मनीषियों ने आलोचना को महारस की मान्यता दी है। आलोचक इसमें डूब कर मन समाधी के समान आनन्द प्राप्त करता है। लेकिन सामान्य व्यक्ति के लिए यह आसान नहीं है, क्योंकि दुनियां में सबसे जटिल काम है स्वयं की आलोचना करना, जो हर व्यक्ति नहीं कर सकता। जैन धर्म में आवश्यक सूत्र के अनुसार अठारह पापों में ‘पर परिवाद‘ भी एक पाप बताया है जिसका अर्थ है दूसरे की आलोचना, पर निन्दा करना या पर दोष दर्शन करना, दूसरे को हीन दृष्टि से देखना। इसे सर्वथा त्यागने योग्य बताया है तथा हेय दृष्टि से देखा जाता है। यह आलोचनक का धर्म नहीं है, पुण्य नहीं है वरन् पाप है। आज व्यक्ति ने इसे सरल बना दिया है, वह चाहे जब, चाहे किसी की सहजता में, बिन श्रम किए, आलोचना कर देता है, टिका टिप्पणी कर देता है, क्योंकि उसका उद्देश्य केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करना होता है या फिर अपने आपको श्रेष्ठ सिद्ध करने हेतु दूसरों की आलोचना या निन्दा करना होता है। इसे शास्त्रकारों ने ‘माया‘ कहा है अर्थात् वह आलोचना या निन्दा करना होता है। इसे शास्त्रकारों ने ‘माया‘ कहा है अर्थात् वह अपनी कमजोरियों को छुपाने के लिए सच्चाई पर पर्दा डालकर असत्य को प्रकट करता है। आज के समय में व्यक्ति बिना महनत किए अपना कार्य करना चाहता, वह केवल दूसरों को देखता है अपने आपको नहीं देखता है।

स्वयं की आलोचना करने का वास्तविक रूप है अपने आपको देखना, प्रेक्षा करना, अपनी अन्तर आत्मा में प्रविष्ट होकर भीतर की बुराईयों की आलोचना करना। अर्थात् स्वयं की निन्दा करना। स्वयं की निन्दा स्वस्थ मानसिकता का पर्याय हो सकती है जबकि पर निन्दा दूसरों को गिराने, अपमानित करने एवं पल पल असहयोग करने का दुर्भाव लिए होती है। आत्म आलोचना मन को सुकून देती है और अच्छा करने के लिए प्रेरित करती है परन्तु ‘पर-निन्दा‘ कांटो जैसे चुभती है फिर भी हम इसे अपने जेहन में चिपकाए रहते है। पर निन्दा या आलोचना करने वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व में विकृति होती है इसे आधुनिक मनोविज्ञान ‘पर्सनैलिटि डिस ऑर्डर‘ मानते है। ऐसे व्यक्ति कभी खुश नहीं रहते और उनसे औरों की खुशी देखी भी नहीं जाती। ऐसे व्यक्ति अपने नकारात्मक संसार का स्वयं निर्माण करते है उनके व्यापक नकारात्मक माप दण्ड होते है, नकारात्मक सोच होती है उन्हीं के आधार पर वे नकारात्मक निर्णय लेते हैं। ऐसे व्यक्ति सदैव ‘अपडेट रहते है। पल पल की खबर रखते है क्योंकि इसी आधार पर वे चुगली करते है तथा इसी को वे आनन्द मान लेते है।

जो व्यक्ति अपने आपको नहीं देखता वह व्यक्ति कोरे प्रकाश का जीवन नहीं जी सकता, उसके साथ अंधकार भी होता है, जो व्यक्ति अपने आपको नहीं देखता कोरे सन्तोष का जीवन भी नहीं जी सकता- असंतोष को भी पाल लेता है। सब कुछ होते हुए भी वह असन्तोषि रहता है क्योंकि ऐसे व्यक्तियों का दृष्टिकोण गलत होता है वे यर्थात् का मूल्यांकन नहीं करते, सच्चाई को नहीं पकड़ते, झुठी धारणाएं बना लेते है, ऐसी मिथ्या धारणाएं उनके जीवन में अंधकार के सिवाय कुछ नहीं दे पाती क्योंकि ऐसे व्यक्तियों के जीवन में प्रकाश कम होता चला जाता है। अधंकार बढ़ता चला जाता है। व्यक्ति में माया, निदान और मिथ्या दर्शन- जब तक ये तीन बाते होती है तब तक व्यक्ति अपने आपको देख नहीं पाता अर्थात् जब तब आदमी अपने आपको नहीं देखेगा तब तक वह अपने भीतर माया को पालेगा, असन्तोष और आकांक्षा को पालेगा और मिथ्या दृष्टिकोण को पालेगा। यह बिल्कुल स्वभाविक बात है कि जो अपने आपको नहीं देखता वह कभी ऋजु और सरल नहीं हो सकता वह तथ्यों को छिपाना शुरू कर देता है और छुपता वही है जो स्व आलोचना करना नहीं जानता अपनी प्रेक्षा नहीं करता। जो स्वयं की आलोचना करता है वह अपने भीतर होने वाले प्रकम्पननो को देख रहा है, अपने भीतर उठने वाले विकारों को देख रहा है, विकार की तरंगों को देख रहा है, वह यह मान कर चलता है कि मेरे भीतर कितनी गलतियां है, विकार है, कितनी बुराईयां है और कितने दोष है उन्हें क्या छिपाना! उन सबको देखना और उन्हें साफ साफ स्वीकार करना यह आलोचना का पहला सिद्धान्त और पहली निष्पत्ति है। जो व्यक्ति आत्म आलोचना करता है, उसके जीवन की प्रणाली बदल जाती है।

आत्म आलोचना से स्पष्ट होते हैं कि हमारे जीवन में कितनी बाधाए आती है कितने विघ्न आते है। जो जीवन की सरसता और महत्ता को नष्ट कर देते है। इन विध्नो पर विचार करने से निदान होता है जिससे हमारी जीवन शैली बदल जाती है। माया भी एक विघ्न है। माया होगी तो समाधान नहीं होगा। एक के बाद दूसरी समस्या उत्पन्न होती रहेगी। विश्वास सदा विश्वास पैदा करता है, माया सदा माया पैदा करती है। माया कभी विश्वास पैदा नहीं होने देती। जहां मायाचार होगा वहां आदमी पहले ही सोचेगा कि अमुक से सावधान रहना है। वह बड़ा धूर्त है, चालाक है, वह सामने मीठी बात करेगा और पिछे विश्वासघात करेगा तथा धोखे बाज भी होगा।

दूसरा विघ्न है- निदान। आकांक्षा होना एक बात है लेकिन आकांक्षा ही आकांक्षा होना दूसरी बात जहां इनका अन्त नहीं, विराम नहीं, समाप्ति नहीं। ये अनन्त दुखों को जन्म देती है जो व्यक्ति को असंतोषी बना देता है इससे व्यक्ति ईमानदारी, सद्चरित्र, को भूलकर बेईमानी के द्वारा तथा बुराई के द्वारा दूसरों को ठग कर धोखा देकर दूसरों की सम्पत्ति अर्जित करता है। आज व्यक्ति की सीमाएं निर्धारित नहीं है मर्यादाएं नहीं है। आज दुष्टिकोण मिथ्या हो रहे है असीम आकांक्षाएं बढ़ रही है, मायाचार बढ़ रहा है जिनसे व्यक्ति शान्ती पूर्ण जीवन नहीं जी पाता। इन तीनों कांटों को आदमी अपनी आलोचना द्वारा निकाल सकता है तथा शान्तीमय जीवन जी सकता है।

दूसरों की आलोचना करने वाला कभी भी औरों को विकसित होते नहीं देख सकता, उन्हें प्रसन्न नहीं देख सकता। वह खुद अपनी आन्तरिक पीड़ाओं की चुभन से पीड़ित रहता है और चाहता है कि दूसरे भी उसके जैसे पीड़ित रहे और यदि ऐसी स्थिति न हो सके तो निदंक के म्यान से निन्दा की ऐसी धारदार तलवारे निकलती है जो पलभर में महाभारत जैसे युद्ध को समाप्त करके ही दम लेती है। निदंक सदैव निदंा की दुनियां में रहते है उनका संसार अलग प्रकार का होता है जहां पर सज्जन एवं सद्चरित्र व्यक्ति को उनके संसार में उठने वाली दुर्गंध से घुटन सी होने लगती है। योग मनोविज्ञान के अनुसार पर निन्दा एक वृत्ति है और यही वृत्ति निंदक को घोर पतन की ओर धकेल देती है यह ऐसा पतन है जहां केवल पीड़ा का नरक है जिससे उबर पाना कठिन हैं क्योंकि पर निन्दा करते करते व्यक्तित्व के अनेक शील गुण खराब और क्षतिग्रस्त हो जाते है। केवल दूसरों की चुगली करने और दूसरों के नकारात्मक पक्ष को सोचते-विचारते बात करते रहने के कारण व्यक्ति की सोच एवं विचार भी घोर नकारात्मकता से भर जाते है।

वस्तुतः व्यक्ति ‘परनिन्दा‘ इसलिए करता है क्योंकि वह अपने आप में घोर असंतुष्ट है। उनके अन्दर इच्छाओं एवं आकांक्षाओं का हाहाकार मचा रहता है उनकी पूर्ती नहीं हो पाती। ऐसी स्थिति जिसे वह चाहता है और उसे नहीं कर पाता है और कोई दूसरा उसे करते हुए नजर आता है तो वह और भी हाहाकार करने लगता है इसी अन्तर की पीड़ा के अभिव्यक्त करने के लिए वह उनकी निन्दा करना प्रारम्भ कर देता है। मनोवैज्ञानिक मानते है कि जब किसी के पास कोई विशेष रचनात्मक कार्य नहीं होता है तो उसके पास अपने विचारों को दिशा देने के लिए भी कोई योजना नहीं होती है। ऐसे में उसे खाली समय मिल जाता है और उस स्थिति में नकारात्मक विचारों का झंझावत उठने लगता है और व्यक्ति फिर अपने जीवन के महत उद्देश्य को भूलाकर अपने बहुमूल्य समय को गंवा कर केवल चुगली और निंदा की राह अपनाता है और इसे करने को जब आरम्भ हो जाता है तो इस कार्य को किए बगैर उसे नींद नहीं आती, चैन नहीं आता है और अन्ततः वह निंदा के चक्रव्यूह में फंस जाता है।

पर निंदा या आलेचना अत्यन्त हेय चीज है, जो जैसा सोचता है, और करता है वह वैसा ही बन जाता है। दूसरों की आलोचना करते करते अच्छे व्यक्ति भी पतित हो जाते है। निन्दक किसी का नहीं हो सकता है, इसलिए उसका कोई विश्वास भी नहीं करता। यह ऐसा मासिक व्यसन है जिसे समाज के प्रतिष्ठित वर्ग से लेकर निम्न वर्ग तक से भी जगह देखा जा सकता है यह वहां नहीं होता जहां कर्मठता होती है, रचनात्मकता होती है, औरो की हर भूलों के बावजूद सदा स्नेह एवं सहयोग करने की मानसिकता होती है। उपनिषदों का ऋषि कहता है- जीवन क्षण भुगुर है, जीवन सदैव प्रारब्ध के जालों से घिरा रहता है। ऐसे में जब उसे अपने बारें में सोचने एवं प्रारब्ध काटने के लिए पर्याप्त समय नहीं होता है तो भला वह कैसे औरो की कमजोरियों को झांक सकेगा।

जब स्वयं का अंतर कषाय-कल्मषों से इतना भरा है तो कैसे हम औरों की ओर दृष्टिपात करें। यही विवेक दृष्टि एवं संकल्पबल हमें पर निन्दा रूपी पिसाचिनी से बचा सकती है। आत्म दृष्टि जितनी प्रबल होगी पर निंदा उतनी ही कम होगी। यदि निंदा करनी है तो अपने आपकी करे। पर निन्दा करने से अविश्वास एवं कुंठा का भाव जाग्रत होता है और समाज में वृतियों की अभिवृद्धि होती है इससे व्यक्ति एवं समाज दोनों पतित होते है। आत्मलोचना एवं पर निन्दा के भेद को समझे तथा इनका मूल्यांकन करें। आत्म आलोचना करने वाला अपने जीवन में आने वाले विघ्नों को टाल देता है और अपनी राह को सरल बना लेता है। जिस व्यक्ति ने स्वयं की आलोचना करना और अपने आपको देखना सीख लिया है उसकी एक अलग पहचान बन जाती है। अतः हमें निन्दक नहीं आत्मलोचना कर श्रेष्ठ मूल्यों के प्रसंशक बनना चाहिए।

-पदमचन्द गाँधी, भोपाल

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