क्या हुआ ऐसा स्वयं से दूर होता जा रहा हूँ और अब ये हाल है मज़बूर होता जा रहा हूँ
छू लिया माथा अचानक वक़्त की मीठी नज़र ने प्राण को बंधक बनाया था किसी चंदन नगर ने मैं किसी की आंख का भी नूर हूं ये सोचता था आज लगता है उसी से दूर होता जा रहा हूँ
तुम नहीं तो ज़िन्दगी को कौन इतने रंग देगा हाथ में रखे हुए ये रंग बिरंगे फूल लेगा दिन महीने साल यूं ही काटता हूं रोज़ अब मैं धीरे धीरे ये हुआ बेनूर होता जा रहा हूँ
स्वप्न हाथों से फिसल कर अश्व जैसा भागता है उड़ रहा हूं बादलों के बीच ऐसा भासता है देह कम्पित हो रही है चाहतों की उंगलियों से छू रही हैं इस तरह संतूर होता जा रहा हूँ
0 टिप्पणियाँ