गहरी पीड़ा उन नज़रों में
सदा समाई है।
जैसे पोखर के पानी पर
फैली काई है।
सांसें बोझिल चुभती-चलतीं
बोझिल ही मन है
आंखों में सागर जैसा
हर पल खारापन है
लगता आंसू ही जीवन की
बड़ी कमाई है।
सरिता-मन में कुछ बहता है
तट पर सारा कुछ
जैसे ऊपर जमी बर्फ हो
नीचे धारा कुछ
बहती धारा कैसे जलता
दीपक लाई है।
सपनों में आना जाना
भी क्या देगा राहत
बोल नहीं सकता मैं तुमको
कथन नहीं कर पाया तुमको
बोल नहीं पाया मैं तुमको
क्या मेरी चाहत
छवि तुम्हारी रोम-रोम को
कितनी भाई है।
जीवन जैसा,जिया या काटा
क्या समझूं बोलूं
अपने अंतस में भी उठते
भावों को तोलूं
वर्णों की लंबी सूची में
अक्षर ढाई है।
-डॉ.महेन्द्र अग्रवाल, शिवपुरी (म.प्र.)
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