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श्रेष्ठ लक्ष्य का प्रणेता है- उच्च आदर्श


लक्ष्य जीवन की दिशा और दशा को निर्धारित करता है। लक्ष्य को निर्धारित किए बगैर अपनी आन्तरिक शक्तियों के प्रयोग एवं उपयोग की सही दिशा सुनिश्चित नहीं हो सकती। जीवन की अपार एवं अपरिमित सम्भावनाएं भीतर में व्याप्त होती है। आवश्यकता है उसे उजागर करने की, प्रगट करने की। युवा शक्ति का पूंज है, उसमें क्षमता है लोक मान्य तिलक अथवा सुभाष बनने की। उसमें योग्यता है किसी बड़े व्यवसाय को प्रतिष्ठित करने की, वह भी बन सकता है, जे.के. बिडला, टाटा, या फिर धिरू भाई अम्बानी। उसमें भी शौर्य है, चुनौतियों का सामना करने का। साहस है, परिस्थितियों को पराजित करने का। सम्भावनाएं है किसी के दर्द को महसूस करने की क्षमता है- पीड़ा, पराभाव एवं पतन को पराजित करने की। लेकिन आज के प्ररिप्रेक्ष्य में उसका लक्ष्य मात्र एक ही रह गया है बहु आयामी की जगह एक सूत्री कार्यक्रम वह है अर्थोपार्जन अर्थात् येन केन प्रमेण धन या मुद्रा प्राप्त कैसे हो। 

आधुनिक युग के इस विकास के दौर मे केवल तकनिकी, प्रौद्योगिकी या बौद्धिक विकास के बल पर हम अपने जीवन का परिपूर्ण विकास नहीं कर सकते। आज के भौतिक वातावरण एवं भूमण्डलीयकरण की नीति से ओत-प्रोत युवाओं ने केवल आर्थिक समृद्धि एवं भौतिक विकास को ही अपना लक्ष्य बना लिया। जीवन के परिपूर्ण विकास के लिए इन सबके साथ नैतिक चारित्रिक और भावनात्मक विकास भी आवश्यक है। जिस व्यक्ति का नैतिक चारित्रिक और भावनात्मक पक्ष अधूरा है उनका जीवन भी अधूरा है। आज हम संसाधनों को प्राप्त कर सभ्य तो बन रहे है, जीवन स्तर भी ऊंचा कर रहे है, लेकिन अनमोल संस्कृति को भूलते जा रहे है। जिससे संवेदनाएं गौण हो रही है। विकास के युग में हम चाहे कितने भी आगे बढ़ जाए जब तक हमारा आध्यात्मिक क्षेत्र पिछड़ा हुआ है तो हमारे जीवन का कल्याण नहीं हो सकता। अतः लक्ष्य वह होना चाहिए जिसे पाकर जीवन की पूर्ण सन्तुष्टि प्राप्त हो सके। जो कुण्ठा के स्थान पर जीवन के उच्च मूल्य एवं शान्ती को प्रदान कर सके। लक्ष्य वही हो जो जीवन का अर्थ बन जाये। देखने में आता है आज बौद्धिक पक्ष तो दिनों दिन प्रबल हो रहा है लेकिन भावनात्मक पक्ष कमजोर। परिणाम यह आता है कि आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होते हुए भी वह मानसिक रूप से टुटा हुआ “स्व-तक“ सीमित एवं क्षीण नजर आता है। ऐसी द्वन्धात्मक एवं असन्तुलन की स्थिति में श्रेष्ठ लक्ष्य को पाने क लिए उच्च आदर्श की आवश्यकता होती है। क्योंकि ‘उच्च आदर्श‘ ही चिन्तनशील, ज्ञान शक्ति, कार्यशक्ति, एवं क्षमता युक्त युवाओं के लिए सही उपयोग की राह प्रस्तुत कर सकते है। एकांगी विकास के स्थान पर चहुमुखी विकास की प्रेरणा दे सकते हैं। प्रभु महावीर ने आह्वान किया “पुरिसा परक्कमेजा“- “हे मनुष्य तू पराक्रम कर! तूं अपने भीतर की शक्ति के स्रोतों को पहचान कर और उनका उद्घाटन कर।“ अतः श्रेष्ठ लक्ष्य को पाने के लिए हमें अपने आदर्शों को देखना होगा जिससे इन्सानियत के गुणों में अभिवृद्धि हो सके।

भारत की पावन धरा में भगवान महावीर बुद्ध, राम, कृष्ण, स्वामी विवेकानन्द, सन्त ज्ञान देव, महाराणा प्रताप, पद्मिनी, महात्मा गांधी, सुभाषा चन्द्र बोस आदि अनेक साधकों ने अपने जीवन मूल्यों की अनुभूति करके जनहित में आदर्श एवं प्रेरणाएं प्रस्तुत की है। जिन्होंने स्वयं के जीवन मूल्यों को समझा तथा हमारे लिए आदर्श एवं उदाहरण बने। इसलिए राम को मर्यादा पुरूषोत्तम, कृष्ण को निष्काम कर्म, महावीर को वीतरागी, बुद्ध को करूणा, विवेकानन्द का ब्रह्मचार्य आदि अनेक गुणों के कारण जाना जाता है।

आज युवाओं के आदर्श बदल रहे है। देखने में आता है बोलीवुड के स्टार चाहे आमीरखान हो, शाहरूख खान चाहे प्लेयर हो या अन्य, वे युवाओं के रोल मॉडल बन रहे है। इनसे युवा अपना लक्ष्य को प्राप्त कर लेगें लेकिन यह लक्ष्य पूर्णता का प्रतीक नही होगा। क्योंकि युवा के पास लक्ष्य तो है लेकिन विजन नहीं है, पुरूषार्थ तो है लेकिन पराक्रम नहीं है।

एक गरीब युवा अध्ययन काल में पिता के साये से वंचित हो गया दुःख दरिद्रता भूख एवं बेकारी से ग्रस्थ लेकिन ईश्वर को पाने की, जानने की तीव्र इच्छा एवं ललक होने से गुरू की तलाश हेतु कड़ाके की सर्दी में नदी को पार कर गुरू के पास गया पूछा ‘ईश्वर‘ कहा है, मोक्ष कहां है तो उन्हेांने कहा प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर है और उसकी सेवा ही पूजा है। ये थे रामकृष्ण परमहंस जो नरेन्द्र के आदर्श बने, रोल मॉडल बने, उन्होंने इस तरह संवारा जिन्हेांने शिकागो भाषण में तहलका मचा दिया। वे और काई नहीं स्वामी विवेकानन्द थे जिन्होंने आह्वान किया “युवा उठो! जागो! और लक्ष्य की प्राप्ति तक रूको मत!
युवाओं के आदर्श कौन एवं कैसे हो - आज सबसे बडी समस्या है कि युवाओं के आदर्श कैसे बने? कौन बने? क्या माता पिता? क्या शिक्षक? क्या धर्माचार्य? जमाना तर्क का है युवा प्रमाण चाहता है तर्क से बात करता है, सिद्ध करना, परिणाम पाना उसकी पहली पसंद है। प्रेरणा किस की प्राप्ति करें? उसका आचरण कैसा है उस पर उसका संदेह रहता है, जिसे अपना मानता है वही धोखा खा जाता है। अतः आज युवाओं को आवश्यकता है ऐसे वास्तुकारों की जो उनके विचारो, कल्पनाओं, इच्छाओं, भावनाअेां, संवेदनाओं को निःस्वार्थ भाव से तराशे, निखारे, सजाएं एवं संवारे। विचारों को सुन्दर मन मिले, मन को संवेदनाओं की शीतल छाव मिले, ऐसे मार्ग दर्शन की आवश्यकता है, साथ साथ ऐसे गुरू चाहिए जो व्यवहारिक जगत की शालीनता, विनम्रता और शिष्टाचार के साथ आन्तरिक जगत के विचार करना, कल्पनाओं में रंग भरना तथा भावनाओं को गति देना सिखाए। युवाओं के आदर्श वहीं हो सकता है जो स्वयं साहस और संवेदनाओं से युवा हो, जिसमें जमाने की हवा को बदलने का दमखम हो, जिसमें कुछ कर गुजरने का भाव उत्पन्न होता हो। क्योंकि आदर्श तो वह सांचा है जिसके बारे में सोच कर हम स्वयं को ढालते है, गढ़ते है और संवारते है। इसकी पहचान सही हो, और खोज पूरी हो। एकलव्य भील जाति का होने के कारण द्रोणाचार्य ने धुनुर्विद्या के लिए मना कर देने बाद भी उन्हें अपना आदर्श माना और धनुर्विद्या में पारंगत हो गया।

घटना यूएस की है- पयुर्षण पर्व चल रहे थे। यू.एस. में जैन परिवार मिल कर किसी एक घर पर पर्व में धर्म ध्यान कर रहे थे। उस घर के मुखिया ने अपने पुत्र को कहा पुत्री को कहा “ये पर्व हमारे महापर्व है। तुम भी कुछ धर्म ध्यान त्याग, प्रत्याख्यान करलो। प्रभु महावीर की वाणी को समझो। बच्चे ने कहा हमारे महावीर भगवान नहीं हमारे तो गोड फादर है वे प्रति रविवार चर्च में जाते, उन पर उन्हीं का प्रभाव था। उन्होंने पर्युषण पर्व नहीं मनाया। नियमों के अनुसार यूएसए में बच्चों को कुछ ज्यादा नहीं कह सकते। पिता ने चिन्तन किया मैं यहां किस लिए आया? क्या धन अर्जित करना ही मेरा लक्ष्य है? तीव्र आघात पहुंचा, आने वाली पीढ़ी कहां जा रही है? विचार कर अच्छी भली नौकरी छोड़कर पुरे परिवार को छः माह के लिए भारत भ्रमण का बहाना करके बड़ी मशक्कत के बाद जीवन की रिस्क उठा कर उन्हें भारत लेकर आ गया। भारत में प्रमुख जैन तीर्थों की यात्रा करवायी, प्रभु महावीर, के बारे में जानकारी करवायी, गुरू भगवन्तो के पास जिनवाणी का रसास्वादन कराया तथा समझाया जिससे बच्चों की मानसिकता बदली तथा धर्म के प्रति रूची बढ़ी उन्हें आनन्द आने लगा, महावीर को समझा और इतना समझा कि उनकी लड़की ने प्रभु महावीर पर पीएच.डी. करली। महावीर जो नहीं मानते वे उनके आदर्श बन गये। उनका जीवन बदला गया। धन्य है ऐसे पिता जिन्होंने ऐसा त्याग कर बच्चों को अपने लक्ष्य और जीवन मूल्य का पाठ पढ़ाया। उन्हेांने अर्थ को नहीं आध्यात्म एवं जीवन मूल्य को महत्व दिया।

अल्फ्रेड नोबल बहुत बड़ा वैज्ञानिक था जिसने डायनामाइट का आविष्कार किया जिस पर नोबल पुरस्कार शुरू किया। एक विचित्र घटना उनके जीवन में घटी। एक दिन नोबल ने अखबार में पढ़ा “नोबल मर गया“। उसे बड़ा झटका लगा। मेरे जीते जी यह मरने का संवाद कैसे छप रहा है? लेकिन तभी उसके मन में एक नया विचार आया कि देखे लोग मेरे प्रति क्या सोचते है? पेपर में अनेक तरह के समाचार छपे, जिसमें लिखा था “मौत का सौदागर इस संसार से चला गया“। नोबल ने सोचा मेरे मरने के बाद लोग मुझे मौत का सौदागर के नाम से जानेगें। यह तो मेरे लिए एक अभिशाप हो गया। यह मेरी उपलब्धी नहीं अभिशाप है। इस चिन्तन से एक नया मोड़ आया, अब मै मौत का सौदागर नहीं शान्ती का संदेशवाहक बनूंगा उसने अपनी कार्य प्रणाली बदली, सारी सम्पत्ति सरकार को सोंप दी उसी सम्पत्ति से उसके नाम से नोबल पुरस्कार की शुरूआत हुयी जो शान्ती के लिए प्रदान किया जाता है।

घटना कलकत्ता की है, अंग्रेजों के शासन में कलकत्ता विश्व विद्यालय के वाइस चांसलर आशुतोष मुखर्जी थे जो अपनी मां को आदर्श मानते थे, सम्मान करते थे। उस समय लार्ड कर्जन ने उनकी योग्यता के आधार पर विदेश जाने का आदेश दिया, उस समय विदेश जाना बहुत बडी बात थी। मां से उन्हेांने मां की राय लेना जरूरी समझा। मां से पूछा मुझे विदेश जाने का आदेश मिला है। क्या मैं चला जाउं? मां धार्मिक विचारों की, सोचा मेरा बेटा विदेश जाकर भ्रष्ट न हो जाये इस लिए मना कर दिया। मुखर्जी ने एक छोटा सा भी तर्क नहीं किया उन्हेांने विदेश जने का विचार त्याग दिया। गर्वनर जनरल कर्जन को पता चला तो कहा जाइए अपनी मां से कहिए कि भारत का गर्वनर जनरल का आदेश है कि आपको विदेश जाना होगा। आशुतोष मुखर्जी का चेहरा मातृभक्ति और मातृ गौरव से उद्धीप्त हो उठा और दृढ़ता और विनम्रता के साथ कहा “सर मै अपनी माता की इच्छा के विरूद्ध स्वर्ग भी जाना पसंद नहीं करूंगा। मै अपनी माता की आज्ञा के सामने किसी की भी आज्ञा स्वीकार नहीं कर सकता चाहे वे भारत के गर्वनर जनरल भी क्यों न हो“। यह था उनका आदर्श यह था उनका आदर्श साहस एवं मातृभक्ति की ढृडता।

महात्मा गांधी जब विदेश गये तो माता ने जैन गुरू बेचरदास जी से मांस, मदिरा और परस्त्रीगमन का नियम दिलाया, उनके आदर्श श्रीमद् राय चन्द्र जी बने, जिसके कारण अहिंसा के बलवर अंग्रेजों के घुटने टिका दिए। ऐसी ही एक सत्य घटना है इन्दौर का एक जैन युवा जो लंदन के हिथ्रो एयरपोर्ट पर बहुत ही शानदार पैकेज के सथ, गाडी, बंगला एवं आम सुविधा के साथ आराम की नौकरी कर रहा था। एक दिन इन्दौर से मां का फोन जाता है, “बेटा मन नहीं लगता, तेरे बिना घर सूना लगता है“ कहते कहते रो पड़ी आंसूओं के कारण बोल नहीं पायी। बेटे ने विचार किया मेरी मां की आंखों में आंसू मेरे कारण, नही! बिना विचार किए करोडों के पैकेज को छोडकर नौकरी से त्यागपत्र देकर तुरन्त फ्लाइट से मां के पास पहुंच गया उसने अर्थ को नहीं मां के महत्व को समझा यह था आदर्श और उनके संस्कार।

अतः स्पष्ट होता है कि यदि हमारे आदर्श अच्छे है तो परिणाम भी अच्छे है। जहां त्याग, समपर्ण, श्रृद्धा एवं आध्यात्मिक की प्रेरणा देने वाले अच्छे क्रिया धारी आगमवेत्त, शुद्ध सदाचारी, पंचमहाव्रत धारी, साधु साध्वियां हो वे ही युवाओं में गुणात्मक परिवर्तन ला सकते है, जीवन की चरम गुणवत्ता को शिखर तक पहुंचा सकते है ब्राह्य झलक दिखलाने वाले बहुत है लेकिन कागज की नांव से समुद्र पार नहीं हेाता। अतः जीवन की नांव को जीवन मूल्यों में अभिवृद्धि करके ही पार की जा सकती है तथा उच्च आदर्श से ही श्रेष्ठ लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।

-पदमचंद गांधी, भोपाल

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