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ये नहीं वो (व्यंग्य)


प्राथमिक कक्षा में हमने हिन्दी व्याकरण पढ़ी थी, संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण, अलंकार वगैरह। मेरे हिन्दी के गुरु जी, आजकल जब पत्रा पत्रिकाओं में मेरे लेख, कवितायें आदि पढ़ते हैं तो गर्व से बताते हैं कि उन्होंने मुझे हिन्दी पढ़ाई है।

हिन्दी व्याकरण में मैने संज्ञा के बदले आने वाले शब्दों ये, वो, वह, उस आदि अर्थात सर्वनाम के बारे में पढ़ा था। आजकल जब से मेरे ’बास‘ कुछ कुछ फिलासफर टाइप के होते जा रहे हैं, इन शब्दों से मेरा ज्यादा ही नाता बढ़ रहा है। वे अचानक कह उठते हैं, श्रीवास्तव, वो केस ले आओ।

मैं कोशिश कर अपनी समझदारी, और उनके मन में चल रही वैचारिक प्रक्रिया, टेलीफोन पर हो रही उनकी चर्चा के अनुरूप अंदाज लगाकर, कोई फाइल लेकर पहुंचता हूं तो वे उसे एक ओर पटकते हुये कहते हैं-अरे, ये नहीं यार वोऽऽ।

मैं पुनः अनुमान लगाता हूं, और उनकी वांछित फाइल लेकर पहुंचता हूं। वे उसे पलटते हुये कहते हैं, ’वो लैटर निकालो।‘ मेरी और उनकी परस्पर समझ से संज्ञाओं की जगह हमारा काम सर्वनामों के सहारे ही चल निकलता है।

अपने इन अनुभवों से मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि निजी सचिव, स्टेनो, वगैरह को ’सर्वनाम‘ की भाषा समझने का प्रशिक्षण भी दिया जाना उचित होगा। एक विश्वस्त, मातहत वही है जो अपने अधिकारी से इनडायरेक्ट लहजे में बोल और समझ सके। जिन कार्यालयों में पत्रों के डिस्पोजल उन पर रखे गये लिफाफों के वजन के आधार पर होते हैं, वहां भी ’इतना नहीं उतना‘, जैसी भाषा लेने देने वाले बखूबी समझ लेते हैं।

सर्वनाम की भाषा आत्मीयता की बोधक है। ऐसा कर लो, वैसा जबाब बना दो, इन्हें नहीं, उन्हें अंदर भेज दो, और साहब का चपरासी समझ जाता है कि किस विजिटिंग कार्ड में कितनी ताकत है। किसे इंतजार करवाना है, और किसके आते ही काफी-चाय की व्यवस्था करनी है।

’ये नहीं वो‘ की भाषा पति पत्नी के परस्पर तालमेल की प्रदर्शक भी है। भरी महफिल में उनकी आंखों ने, उनसे बात कर ली और किसी को खबर भी नहीं हुई। आध्यात्मिक पृष्ठभूमि में इसी को भावनात्मक प्रेम या मनोवैज्ञानिक विश्लेषण में टैलीपैथी कहा जा सकता है। केवल चिंतन मात्रा से आपकी भावनायें संप्रेषित हो सकती हैं। फिर तो यह ’ये और वो‘ की भाषा है।

यूं तो दूकानदार और उसके नौकर भी इस भाषा में पारंगत होते हैं। ये दिखाते हैं और वो पैक कर देते हैं। ग्राहक ठगा जाता है।

हिन्दुस्तानी पत्नियां जो अपने पतियों को ये और वो कहकर ही उनका परिचय देती हैं, उन्हें मेरा विशेष आदर है। महिलाओं की परस्पर वार्ता में प्रायः हमारे ये तो ऐसे हैं जैसे उद्धरणों से भरी रहती है। इन पत्नियों ने पतियों की संज्ञा को सर्वनाम में बदलकर रख दिया है।

तो जो है सो अंत में यही कहना चाहता हूं कि इस देश में कुर्सी पर ये बैठे या वो, हम जैसे आम आदमी का नाम बचा रहे, उसकी संज्ञा उसकी पहचान बची रहे, वह ये और वो बनकर भीड़ में खो न जाये, यही कामना है।
-विवेक रंजन श्रीवास्तव
 (अदित फीचर)

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