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तुम भी बहते चलो (कविता)


जल में खेलती मछलियां
पत्थरों को तोड़ बनाता पथ
प्रवाह ही तो है नदी का
है कुछ भी तो अलग नही
तुम अलग हो देखो
तट पर तड़पती
मछलियों ने कहा

मछुआरे के हाथों से
नहलाई गई मछली
और तो और
देखो न उसके बदन से
चोइटे को रगड़ रगड़
कर रहा है साफ सुथरा
कितने सहज भाव से
नदी के घाट पर मछुआरा

सब अपने कार्य में हैं ब्यस्त
क्या नही दिखता आपको
नदी के आश्रय में
पल रहा जीवों का संसार
असार इस संसार में
तुम भी बहते चलो
नदी की धार की तरह
निर्लिप्त ,निर्द्वन्द
अभय और स्वच्छंद
जीवन के इस दुर्गम पथ पर।

-अरविन्द कुमार पाठक 'निष्काम', नागदा



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