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बदलते मूल्य और सामाजिक अपेक्षाएँ


संस्कार एवं परम्पराएं किसी भी राष्ट्र की वे महत्वपूर्ण धरोहर है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जोड़ती है। जीवन को सुखद सहज, सरल एवं आनन्दमयी बनाती है। सामाजिक मूल्यों का विकास ही समाज को सात्विक बल एवं सही दिशा प्रदान करता है। सहयोग, स्नेह, समर्पण, श्रद्धा, आदरभाव, समता, प्रसन्नता, सहकारिता, मधुरता, बन्धुत्व, चारूता, उदारता, विनम्रता आदि ऐसे मूल्य है जो जीवन को आदर्श ही नहीं बनाते वरन् जीवन के एक ‘उत्सव‘ की भाँति जीने का मौका देते है। लेकिन आधुनिकता के इस संक्रमण काल में इनके मूल्य बदल गये है। स्वतंत्रता में जीवन जीने की अनेक विधियाँ आविष्कृत हुयी। परतंत्रता एवं उठापटक ने भी भारतीय मूल्यों को स्थिर बनाये रखा लेकिन आधुनिकता ने तो इस थोडे समय में सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों को तेजी से क्षीण कर दिया जिससे सम्पूर्ण सामाजिक स्थिति चरमरा गयी तथा समाज का अस्तित्व खतरे में आ गया। आज स्थिति इतनी गम्भीर होती जा रही है कि मनुष्य पशु की श्रेणी से भी निम्न स्तर पर जा रहा है।

समय की तेज रफ्तार में पुरानी परम्पराएं सामाजिक मूल्य, पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही पारिवारिक व्यवस्थाएं अब आधुनिकता के नाम पर तार-तार होकर बिखर रही है। प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से संचार व्यवस्था, इलेक्ट्रोनिक युग, विदेशी संस्कृति की घुसपैठ तथा अतिभोगवाद की संस्कृति ने भारतीय संस्कृति को तीव्र रूप से प्रभावित किया है। अतिभोग के लिए आज व्यक्ति भागमभाग की आपाधापी में अधिक धनसंग्रह, विलासितापूर्ण जीवन अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त होकर अपने आपको समाज में झुठी प्रतिष्ठा का प्रदर्शन कर सर्व श्रेष्ठ घोषित करना चाहता है। इसके लिए वह कोई भी घिनोना कृत्य करने को तैयार हो जाता है। आधुनिकता की आड़ में व्यक्ति अपने बुजर्गों से विरासत में प्राप्त संस्कारेां की धरोहर तथा सामाजिक मूल्यों को धीरे धीरे भूलता जा रहा है। इनके स्थान पर अमर्यादित जीवन तथा फूहड़पन वाली संस्कृति को ग्रहण कर रहा है।

अतिभोगवाद की अप संस्कृति एवं भूमण्डलीय करण के कारण व्यक्ति ने केवल अर्थोपार्जन को ही अपना एक मात्र लक्ष्य मान लिया है। उसने नैतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों को गौण कर दिया है। आज व्यक्ति ‘इजिमनी‘ प्राप्त करने के लिए गलत कार्य करते हुए भी डरता नहीं हैं। इस इजिमनी से वह तृप्त होना चाहता है लेकिन फिर भी वह अतृप्त एवं असन्तुष्ट नजर आता है। आज ही सब कुछ चाहिए, कल का धीरज नहीं रखने वाली मानसिकता के व्यक्ति नैतिकता की सभी दीवारें तोड़ कर अपने जीवन को दांव पर लगा रहा है। आज व्यक्ति के पास अत्याधुनिक साधन होने के बाद भी सुखी नहीं है, उसे गहरी नींद का सुख नहीं मिलता क्योंकि वह साधनों के ढेर में अजनबी अनजान बन कर अपनापन ढूंढ रहा है जो उसे नहीं मिलता। आज भौगोलिक दूरियां तो कम हो गयी लेकिन मन की दूरियां तेजी से बढ़ गयी। एक ही छत के नीचे अपने ही अनजान की तरह रह रहे है। एकाकी जीवन पर पश्चात्य प्रभाव इतना हावी हो गया है कि व्यक्ति अपनी सभी सीमाओं एवं मर्यादाओं को लांघ कर मात्र इन्द्रिय सुखों की लालसा में अपना अमूल्य चरित्र भी दाव पर लगा रहा है तथा उच्छृखंल जीवन जीने की राह पर चला जा रहा है। आज व्यक्ति सभी प्रकार के सामाजिक व्यापारिक, आर्थिक एवं प्राकृतिक मर्यादाओं के तट बांधों को तोड़ कर आगे बढ़ रहा है। आर्थिक सत्ता हांसिल करने के लिए न जाने कितने ताने बाने बुनता है। कोरोना महामारी से उत्पन्न मृत्यु का ताण्डव चारों तरफ नजर आ रहा है लोग ऑक्सीजन एवं दवाओं के लिए तडप रहे है अस्पतालों में बेड एवं वेन्टिलेटर उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। महंगाई चरम स्तर पर पहुंच गयी है इन भयावह स्थिति में आम आदमी सदमें में आ रहा है लेकिन इस गंभीरता तो नजर अन्दाज करते हुए प्राणरक्षक वस्तुएं जैसे- दवाइयां, ऑक्सीजन, इंजेक्शन इत्यादि की आज काला बाजारी मनुष्य ही कर रहा है। उसे यह पता नहीं कि वह कल जिन्दा भी रहेगा या नहीं फिर भी लालची बनकर मानवता को मृत्यु में घकेल कर दस गुणा अधिक दाम पर इन चीजों की कालाबाजारी करके काला धन कमा रहा है। आज मनुष्य के लिए मानवता एवं संवेदनशीलता मर चुकी है इसके कारण उसकी जीवन शैली भी विकृत हो गयी है। मृत्यु से भी उसे डर नहीं लगता। वह क्या करना चाहता है समझ से परे हो रहा है।

समाज के बदलते मूल्यों ने समाज की गरिमामय अखण्डता एवं एकता को खतरा उत्पन्न कर दिया है प्रभुत्वशाली लोगों का प्रभाव ही हावी हो रहा है जिनसे वे अपने व्यक्तिगत स्वार्थ पूरे कर रहे है। स्वस्थ समाज नहीं रहने से समाज के प्रति समर्पण एवं सम्मान भी क्षीण हो गया है। आधुनिकीकरण एवं बढ़ती मुक्त विचारधारा के कारण समाज की परवाह किए बगैर गलत कार्यों को करने में व्यक्ति को अब डर नहीं लग रहा है। आज संयुक्त परिवार के स्थान पर एकाकी परिवार पनप रहे है। माता-पिता एवं अपने बच्चों तक के परिवार बिखर रहे हैं। उनमें भी वैचारिक दरारे पड़ने के कारण टूटने की कगार पर पहुंच गये है। पति-पत्नी के संवेदनशील रिश्ते टूट रहे है। व्यक्ति एकाकी जीवन व्यतीत करने को मजबूर हो गया है जिससे उसे कुण्ठा के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता। ऐसी प्रवृतियों के कारण समाज में अनगिनत अनचाही बुराईयां प्रविष्ट हो चुकी है। समाज में आडम्बर, दिखावा एवं अपव्यय बढ़ रहा है। लेकिन मन की शांति एवं विवेक क्षीण हो रहा है।

बदलते परिवेश में अराजकता, नग्नता एवं अनैतिकता अपने पांव पसार रही है। आधुनिक बनने के चक्कर में व्यक्ति अपने धर्म, संस्कृति एवं संस्कारों की बली दे रहा है। आज चारों और मीडिया एवं टी.वी. चैनलों द्वारा नग्नता का प्रदर्शन किया जा रहा है। इनका सीध असर समाज पर पड़ता है खास कर युवा पीढ़ी इसे आचरित कर अपने आपको मोर्डन बनाने का खुल कर प्रयास कर रही है। द्रोपदी ने चीर हरण पर कृष्ण को पुकारा था जिसने उसकी लाज बचायी लेकिन अब तो द्रोपदियां स्वयं भरे बाजार में अपने कपड़े फाड़ कर खड़ी हो जाती है। लांछन किसी नीरिह पर लगा कर उससे पर्स, मोबाइल, अंगूठी, चैन आदि हड़प लेती है। इस खुले प्रदर्शन के कारण ही मानसिक प्रदुषण बढ़ता जा रहा है जिसके कारण हत्याएं, बलात्कार, लूट जैसी घटनाएं बढ़ रही है।

उच्च सामाजिक मूल्यों के कारण ही भारत को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर गुरूवत्त मान सम्मान मिला हुआ था लेकिन आज आधुनिकता के नाम पर अपसंस्कृति और मूल्य हीनता का शिकार बन कर निकृष्टतम अमानवीय मनोवृतियों का अखाड़ा बन कर रह गया है। नैतिकता एवं सांस्कृतिक आयोजनों की आड़ में अनैतिकता और अनाचार पोषित हो रहा है। नारी स्वतंत्रता की आड़ में उनका शोषण हो रहा है। आधुनिक दिखने की चाह में उलूल जलूल कपड़ों का चलन बढ़ गया है। सिगरेट, शराब तथा मादक पदार्थों का सेवन युवा वर्ग को आधुनिकता का पैमाना प्रतीत हो रहा है। इसमें युवतियां भी शामिल हो रही है। ‘पब‘ और ‘डिस्को‘ संस्कृति, में स्वतंत्र तथा उन्मुक्त जीवन जीने की चाह मंे युवा पीढ़ी लिव इन रिलेशनशिप को अपना रही है। युवा पीढ़ी सामाजिक जिम्मेदारी तो क्या पारिवारिक जिम्मेदारी को भी निभाना उचित नहीं मानती। बिना विवाह के पवित्र बन्धन में बन्धे युवक युवतियों का साथ रहना पश्चिम की तर्ज पर आधुनिक बनने के चक्कर में गर्त में गिरते युवा अप्राकृतिक सम्बन्ध बनाने की और अग्रसर हो रहे है। आधुनिक बने दम्पत्ति इकाई परिवार के समर्थक आज बुजुर्गों के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार अपनाने की और अग्रसर हो रहे है। ऐसे में उनका आर्शीवाद आधुनिकता की सरपरस्ति में बेमानी हो गया है। बच्चों में संस्कार वही आते है जो दिखाया जाता है या सिखया जाता है। जो कृत्य मां बाप करते है उसी का अनुसरण बच्चे करते हैं। घरेलू हिंसा, लड़ाई झगडे, रिस्तों की दूरिया, बदलते परिधान, ये सभी बच्चे उनके मां बाप से ग्रहण कर रहे है इनका आचरण कैसा होगा जरा सोचे?

परिवार एवं समाज तभी गौरान्वित होता है जब व्यक्ति के आचरण में शुद्धता, विनम्रता, भ्रातत्व, सहकार भावना, संस्कारित आचरण का एक उदाहरण अपने बच्चों के सामने प्रस्तुत करे तथा भौतिक कंगूरा नहीं संस्कारों की नींव बने। शैक्षिक संस्थाओं में नैतिक शिक्षा को अनिवार्य रूप से लागू करे तथा शिक्षक बच्चों पर नैतिकता की गहरी एवं अमिट छाप छोड़े। स्वच्छ प्रशासन द्वारा दूरदर्शन केबल चैनलों पर अंकुश लगाये जिससे उच्च एवं पारदर्शी चरित्र उत्थान के साथ सामाजिक मूल्यों को बरकरार रखे।

श्रेष्ठ व्यक्ति ही श्रेष्ठ समाज का निर्माण करता है। अतः व्यक्ति अपनी सोच को सकारात्मक रूप देकर समाज को संगठित करें। सामाजिक स्तर पर इन बदलती परिस्थितियों पर चिन्तन किया जाये तथा सामाजिक अंकुश लागू किया जाये इसके लिए सम्पन्न एवं प्रभुत्वशाली व्यक्ति सबसे पहले समाज के सामने एवं लिए गये अच्छे निर्णयों को लागू करे तथा अमल में लाये। साहित्यकार सत् व प्रेरक साहित्य का सृजन कर चाणक्य की तरह अलक जगाए। सन्त महात्मा मुनिजन इन समस्याओं पर आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता के आधार पर व्यक्तियों को वास्तविक जीवन जीने के लिए ठोस कार्यक्रम बनाकर निस्वार्थभाव से लागू करें। महिलाएं ‘अर्थ‘ एवं कैरियर के स्थान पर अपनी भावी पीढ़ी और परिवार को अधिक महत्वपूर्ण समझे। युवा वर्ग में परिवार, समाज व धर्म के प्रति श्रद्धा समर्पण एवं आस्था की भावना जगे। इन सबसे निश्चित रूप से सामाजिक मूल्यों में बढ़ोतरी होगी तथा समाज सुसंस्कृत होकर सर्वोच्च शिखर को प्राप्त कर सकेगा।

बदलते मूल्यों को रोकना है तो व्यक्ति को अनेकान्तवादी दृष्टिकोण को अपनाना होगा क्योंकि अनेकान्त दृष्टि वैचारिक संकीर्णताओं को मिटाने के साथ ज्ञान की सम्भावनाओं के अनन्त द्वार खोलती है। यह विवादों, कलह, एवं संघर्षों को मिटाने की एक अमृतमय औषधि ही नहीं वरन वर्तमान में क्लेशों एवं आतंकवाद को समता पर लाने का महान रथ है। यदि अनेकान्त दृष्टि को व्यवहारिक जीवन के धरातल पर उतारा जाय तो समतामूलक अहिंसा मूलक और संघर्ष विहीन स्वस्थ समाज की संरचना सम्भव होगी।

-पदमचंद गांधी, भोपाल

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