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धूप में साये की तलाश


धूप मे चलते-चलते
साये की तलाश में
आँखे तरसती रही
तरबतर बदन की परवाह थी किसे
मगर धूप अंगारे बरसाती रही

चलते चलते पाँव जवाब देने लगे
शरीर भी ना-ना कहने लगा
मगर चलना तो था
मंजील का अभी कुछ अता पता नहीं था

कोई हम सफर नहीं
मिलने की उम्मीद भी नहीं
वो कौन सी ख्वाहिश है जिसके लिए
पैर रुकने को तैयार नहीं

तू ही बता दे परवरदिगार
भटके हुये मुसाफिर की कोई मंजील भी है?
या, ताउम्र भटकना ही नसीब है !

-इन्द्रकुमार श्रेष्ठ सरित् ,काठमाडूं, नेपाल

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