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बीत गया वह दौर पुराना


बीत गया वह दौर पुराना, घर पर काजल बनता था,
सरसों तेल में बाती, उसमें बादाम बताशा पड़ता था।
तेल दिये के ऊपर सराही, काजल जिसमें जम जाता,
गाय घी में मिलाकर संरक्षित, वर्ष भर वह चलता था।

नित रात में काजल, आँखों को शीतलता देता,
नारी के सौन्दर्य की चर्चा, काजल उसमें सजता।
तीखे नयन कटारी जैसे, काजल से सज जाते,
झुकी पलक मन आहत तो, काजल बतला देता।

बिन चश्मे के दादी रहती, बिनाई तेज सदा वह कहती,
चावल दाल सफ़ाई करती, सुई में धागा डाला करती।
नये दौर में पढ़ें लिखो ने, काजल पर प्रतिबंध लगाये,
घर का काजल ख़त्म किया, पेंसिल से श्रंज्ञार कराती।

-डॉ अ कीर्तिवर्द्धन, मुजफ्फरनगर

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