प्यार नफ़रत की हरी पौध जला देता है।
कितना ज़ालिम है बमों का ये ज़खीरा जो की,
मौत की नींद हज़ारों को सुला देता है।
मुझको आता नहीं अपनों को पराया करना,
दर्द अपनों को कहीं भी हो रुला देता है।
लोग वाक़िफ़ नहीं है इश्क़ की ताक़त से अभी,
इश्क़ सहरा में भी कुछ फूल खिला देता है।
उनको मालूम नहीं ख़ून का क़तरा गिरकर,
कैसरो किसरा के महलों को हिला देता है।
-हमीद कानपुरी, कानपुर
0 टिप्पणियाँ