याद तुम्हारी आदम कद फिर
घर में आई है।
सजा रही बिखरी चीजों को
पुनः करीने से
किया व्यवस्थित कमरे को
दी गंध पसीने से
ग़ज़ल दाग़ की, ग़ज़ल मीर की
जैसे गाई है।
चेहरे पे जुल्फें बिखेर कर
मुझे जगाया है
चादर खींची दे आवाजें
तुरत उठाया है
लगा देख के गंगाजल से
छवि नहाई है।
रख दी आखिर चाय सिरहाने
नींद भगाने को
रखे करीने से सब कपड़े
दफतर जाने को
जीवन साथी की परिभाषा
सम्मुख आई है ।
-डॉ. महेन्द्र अग्रवाल, शिवपुरी (म.प्र.)
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