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नारायणी माया बदेका की दो मालवी कृति : संजा बाई और म्हारी संजा

नारायणी माया मालवेंद्र बदेका की दो काव्य कृतियां संजा बाई और म्हारी संजा में मालवी लोक गीत के साथ मांडना कला और संजा की सुंदर कलाकृति भी समाहित है।

'आप पधारिया पियर संजा बई /खिली खिली गयो आंगणो' संजा पर्व पर संजा के लोक गीतों एवं कलाकृति के बारे में उदेश्य है की लोककला से आने वाली पीढ़ी को अवगत कराना आवश्यक है। पौराणिक कथाओं के आधार पर "संजा पर्व" का महत्व भगवान शिव और माता पार्वती पर आधारित है। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव को वर रूप में पाने के लिए माता पार्वती ने इस "संजा पर्व" को प्रतिष्ठित किया था। कहीं-कहीं पर ऐसी मान्यता है कि सांगानेर की राज कन्या संजा की स्मृति में यह पर्व मनाया जाता रहा है कुंवारी कन्याओं को सुयोग्य वर मिले इसलिए भी यह व्रत किया जाता है।

मालवी लोक गीत - संजा तू थारे घर जा ,की थारी बाई मारेगा के कुटेगा ..... , संजा बाई का लाडाजी लुगडो लाया जाडाजी .....,काजल टिकी लो भई ,काजल टिकी लो ....ऐसे कई लोक गीत दोनों काव्य संग्रह में समाहित है । लोक गीतों से सजी धजी में मालवी मिठास लिए और लोक परम्पराओं को समेटे लोक संस्कृति को विलुप्त होने से तो बचाती है साथ ही लोक कला के मायनों के दर्शन भी कराती है।संजा की बिदाई मानों ऐसा माहौल बनाती है जैसे बेटी की बिदाई हो रही हो सब की आँखों में आंसूं की धारा फूट पड़ती है । ये माहौल बेटियों को एक लगाव और अपनेपन का अहसास कराता है।बस ये बचपन की यादें सखियों के बड़े होजानेऔर विवाह उपरांत बहुत याद् आती है। लोक गीतों की गरिमा बनी रहती और ये विलुप्त होने से भी बचे हुए है।मालवा - निमाड़ ,राजस्थान ,गुजरात राजस्थान ,महाराष्ट्र ,हरियाणा ,ब्रज के क्षेत्रों की लोक परम्परा में इनको भिन्न भिन्न नामों से जाना जाता है ।

संजा के गीतों की खासियत ये भी है कि जब लड़कियां आरती समाप्त करती तो जो प्रसाद वितरित किया जाता है।उसके पहले वो उस प्रसाद को ढांक के रखकर प्रसाद का नाम भी पूछती है।किंतु प्रसाद का नाम नही बता पाता।जब कोई बता देता या नही भी बता सकती तब अंत मे प्रसाद वितरित किया जाता। गीत मन को छू जाते है।लड़कियां एक सहेली के घर गीत गाने के बाद अन्य सहेलियों के यहां मनुहार के बाद जाती है।इस तरह संजा के लोकगीत बचाने में पर्व का महत्व बरकरार है। संजा विसर्जन के समय जिस गांवों में नदी बहती है।उसके किनारों पर तगारी,टोपले में संभाल कर रखी गई संजा को नदी में विसर्जन किया जाता है।ये पर्यावरण की हितेषी है।इसको जल में प्रवाहित करने पर नदी प्रदूषित नहीं होती।लड़कियों का इतने दिनों तक संजा के संग रहने और अब अगले वर्ष संजा का आना आंखों में आंसू ला देता है।खाली तगारियों, टोपलो को वे नदी के किनारे एक के ऊपर एक रखकर उस पर से कूदती है।शायद ये वियोग को भुलाकर इस तरह खुशियां समाहित करती है।संजा पर्व की यादें विवाह उपरांत ताउम्र याद रहती है।

संजा के गीत मुखाग्र एक दूसरे से सीखती जाती है।शाम होने पर इनके मधुर गीत कानों में मिश्री घोलते है।संजा पर्व पर ही गाए जाने गीतों को सुनने के लिए लोग घरों से बाहर आ जाते औऱ चलते हुए राहगीरों के पग रुक से जाते। लोककलाओं की संस्थाए में बड़ी संख्या में लड़कियाँ एकत्रित होकर संजा बनाती है। छत्तीसगढ़ ,बुंदेलखंड क्षेत्र में लड़किया झाड़ की पत्तियाँ को विशेषकर नीबू को ओढ़नी उड़ाकर फूलों से सहेजने की प्रक्रिया को वे मामुलिया बोलते है पर्व मनाते है।लोक गीतों और कलाकृतियों को बचाने में कई स्थानों पर संजा उत्सव संस्थाए पुनीत और प्रेरणादायी कार्य कर रही है।जो की प्रशंसनीय है। 

संकलन में तिथिवार कलाकृतियों के नाम क्रमशः पुनम का पाटला ,एकम की छाबड़ी ,बीज का बिजोरा ,तीज का तीजों ,चौथ का चोपड़ ,पंचम का पांच कटोरा ,छट का छः पंखुडी का फूल ,सातम का स्वस्तिक -सातिया ,अष्टमी को आठ पंख़ुडी का फूल ,नवमी का डोकरा -डोकरी ,दशमी का दीपक या निसरनी ,ग्यारस का केल ,बारस का पंखा ,तेरस का घोडा ,चोदस का कला कोट ,पूनम का कला कोट ,अमावस का कला कोट।श्राद के 16 दिनों कुँवारी कन्याओं द्धारा गोबर, फूल -पत्तियों आदि से संजा को संजोया जाता है । संजा पर्व एक पाठशाला है । संजा से कला का ज्ञान प्राप्त होता है ,पशु -पक्षियों की आकृति बनाना और उसे दीवारों पर चिपकाना। गोबर से संजा माता को सजाना और किला कोट जो संजा के अंतिम दिन में बनाया जाता है ,उसमे पत्तियों ,फूलों और रंगीन कागज से सजाने पर संजा बहुत सुन्दर लगती है। लडकियाँ संजा के लोक गीत को गा कर संजा की आरती कर प्रसाद बाटती है ।श्रंगार रस से भरे लोक गीत जिस भावना और आत्मीयता से गाती है ,उससे लोक गीतों की गरिमा बनी रहती और ये विलुप्त होने से भी बचे हुए है।

मालवा - निमाड़ की लोक परम्परा श्राद पक्ष के दिनों में कुंवारी लडकिया माँ पार्वती से मनोवांछित वर की प्राप्ति के लिए पूजन अर्चन करती है ।विशेषकर गाँवों में संजा ज्यादा मनाई जाती है ।संजा मनाने की यादें लड़कियों के विवाहोपरांत गाँव /देहातों की यादों में हमेशा के लिए तरोताजा बनी रहती है और यही यादें उनके व्यवाहर में प्रेम,एकता और सामजस्य का सृजन करती है ।संजा मनाने की यादें लड़कियों के विवाहोपरांत गाँव /देहातों की यादों में हमेशा के लिए तरोताजा बनी रहती है और यही यादें उनके व्यवहार में प्रेम,एकता और सामजस्य का सृजन करती है । 

संजा सीधे- सीधे हमें पर्यावरण से ,अपने परिवेश से जोडती है ,तो क्यों न हम इस कला को बढ़ावा दे और विलुप्त होने से बचाने के प्रयास किए जांए ,वैसे उज्जैन में संजा उत्सव पर संजा पुरस्कार से सम्मानित भी किया जाने लगा है।कुल मिला कर संजा देती है कला ज्ञान और मनोवांछित फल प्रदान करती है।संजा मनाने की यादें लड़कियों के विवाहोपरांत गाँव /देहातों की यादों में हमेशा के लिए तरोताजा बनी रहती है और यही यादें उनके व्यवहार में प्रेम,एकता और सामजस्य का सृजन करती है । संजा सीधे- सीधे हमें पर्यावरण से ,अपने परिवेश से जोडती है ,तो क्यों न हम इस कला को बढ़ावा दे और विलुप्त होने से बचाने के प्रयास किए जांए ,वैसे उज्जैन में संजा उत्सव पर संजा पुरस्कार से सम्मानित भी किया जाने लगा है ।साथ ही महाकालेश्वर में उमा साझी महोत्सव भी प्रति वर्ष मनाया जाता है।कुल मिला कर संजा देती है कला ज्ञान एवं मनोवांछित फल प्रदान करती है। मालवी लोक गीत ,मांडणा गोबर से निर्मित सुंदर संजा कलाकृति से सजा संग्रह माया मालवेंद्र बदेका ( नारायणी माया ) का सुंदर संग्रह है । मालवी बोली के हित में अवश्य परचम लहराएगा।
लेेखक -श्रीमती माया बदेका, उज्जैन (म.प्र.)
प्रकाशक -झलक निगम सांस्कृतिक न्यास उज्जैन

चर्चाकार 
-संजय वर्मा 'दृष्टि',मनावर जिला धार (म. प्र.)

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