मैं जहां देखता हूं मुझे तुम ही नजर आती हो, कभी दुर्गा बन सिंह पर सवार हँसती मुस्कुराती हुई, तो कभी महाकाल के वक्ष स्थल पर पांव रख महाकाली बन अट्हास करती हुई। कभी सुना है तुझे मंदिर की गूँजती घण्टियों में हूँ हूँ का नाद करते हुए। कभी महसूस किया है तुमको बहती हल्की नम हवाओं में संपूर्ण विश्व का ध्यान करते हुए।
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