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प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पन्त पर हुई परिचर्चा

सूत्रधार साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था भारत की दसवीं मासिक गोष्ठी सम्पन्न

हैदराबाद। सूत्रधार साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था, भारत की दसवीं मासिक गोष्ठी का ऑनलाइन आयोजन गत दिनों किया गया। संस्थापिका सरिता सुराणा द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया कि यह गोष्ठी दो सत्रों में आयोजित की गई। सर्वप्रथम अध्यक्ष ने सभी सदस्यों और अतिथियों का स्वागत किया और संस्था के उद्देश्यों और क्रियाकलापों के बारे में जानकारी दी। तत्पश्चात् सुनीता लुल्ला ने निराला कृत सरस्वती वन्दना प्रस्तुत की। प्रथम सत्र में छायावादी कवि सुमित्रानंदन पन्त के रचना-संसार पर परिचर्चा की गई। चर्चा आरम्भ करते हुए सरिता सुराणा ने कहा कि सुमित्रानंदन पन्त का जन्म 20 मई सन् 1900 ई. को अल्मोड़ा जिले के कोसानी गांव में हुआ था। इनके जन्म के कुछ ही समय पश्चात् इनकी माताजी सरस्वती देवी का निधन हो गया। इसलिए इनकी दादी ने ही इनका पालन-पोषण किया। इनके पिताजी का नाम गंगापत था। पन्त जी का वास्तविक नाम गुसाईं दत्त था लेकिन इन्होंने अपना नाम बदलकर सुमित्रानंदन पन्त रख लिया। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा अल्मोड़ा में ही हुई। 1918 में ये अपने बड़े भाई के साथ काशी आ गए वहां पर क्वींस काॅलेज से इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। बाद में म्योर काॅलेज में पढ़ने के लिए इलाहाबाद चले गए। सन् 1921 में महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन से प्रभावित होकर इन्होंने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और फिर घर पर ही हिन्दी, बांग्ला, संस्कृत और अंग्रेजी भाषाओं के साहित्य का अध्ययन किया। इनका जन्म स्थान प्राकृतिक सुषमा से सम्पन्न था इसलिए इन्हें प्रकृति से बहुत लगाव था और इसलिए इनकी रचनाओं में प्रकृति के हर रूप का दर्शन होता है। इनकी एक प्रसिद्ध कविता है- पावस ऋतु थी पर्वत प्रदेश/पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश/मेखलाकार पर्वत अपार/अवलोक रहा है बार-बार/नीचे जल में निज महाकार। इनकी रचनाओं में पुष्प, लता, झरना, हिम, भ्रमर, ऊषा किरण, शीतल पवन, दृग सुमन, तारों की चूनर ओढ़े गगन से उतरती संध्या आदि उपमानों का बहुतायत में प्रयोग हुआ है। इनकी इन्हीं काव्यगत विशेषताओं के कारण ही इन्हें 'प्रकृति का सुकुमार कवि' कहा जाता है।
इनके पिताजी का निधन होने के बाद इन्हें अपनी जमीन और घर बेचना पड़ा। इन्हीं परिस्थितियों में वे मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुए। 1931 में ये कुंवर सुरेश सिंह के साथ कालाकांकर, प्रतापगढ़ चले गए और बहुत वर्षों तक वहीं रहे। इनकी साहित्यिक यात्रा के तीन प्रमुख पड़ाव हैं- प्रथम पड़ाव में ये छायावादी कवि लगते हैं तो दूसरे पड़ाव में ये समाजवादी आदर्शों से प्रेरित प्रगतिवादी कवि लगते हैं। तीसरे पड़ाव में इनका झुकाव अध्यात्मवाद की ओर हो गया। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं- वीणा, पल्लव, गुंजन, ग्रन्थि, ग्राम्या, युगान्त, कला और बूढ़ा चांद, लोकायतन, स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, चिदम्बरा और सत्यकाम आदि।
'चिदम्बरा' के लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार, 'लोकायतन' के लिए सोवियत नेहरू शांति पुरस्कार और हिन्दी साहित्य की अनवरत सेवा के लिए भारत सरकार द्वारा 'पद्मभूषण' पुरस्कार से अलंकृत किया गया। उनके आधी सदी से भी अधिक लम्बे रचनाकाल में आधुनिक हिन्दी कविता का एक पूरा युग समाया हुआ है। उन्हें हिन्दी साहित्य का विलियम वर्ड्सवर्थ कहा जाता है। वे निर्विवाद रूप से छायावाद के चार प्रमुख स्तम्भों में एक मजबूत आधार स्तम्भ थे।
चर्चा को गति प्रदान करते हुए डॉ. सुमन लता ने कहा कि पन्त जी की तुलना तेलुगु भाषा के विशिष्ट कवि श्री देवुलपल्लि कृष्ण शास्त्री से कर सकते हैं। इन दोनों कवियों के व्यक्तित्व और लेखन में बहुत समानताएं विद्यमान हैं। रोमांटिक कविताओं को तेलुगु भाषा में 'भाव कविता' की संज्ञा दी गई है। पन्त जी की 'चिदम्बरा' का तेलुगु अनुवाद डॉ. इलपावुलूरि पाण्डुरंगाराव ने किया है इसलिए पन्त जी तेलुगु भाषियों के भी जाने-पहचाने कवि हैं।
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए सुनीता लुल्ला ने कहा कि पन्त जी ने अपने काव्य में ऐसे-ऐसे बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग किया, जिनसे उनकी रचनाएं सजीव हो उठीं। एक उदाहरण देखिए- 'प्रथम रश्मि का आना रंगिणी/तूने कैसे पहचाना?/ कहां कहो हे बाल विहंगिनी/ पाया यह मादक गाना?'
उन्होंने कहा कि पन्त जी ने प्रकृति में नारी सौन्दर्य के हर रूप का दर्शन किया। वे आजीवन अविवाहित रहे लेकिन प्रकृति के साथ उनका तादात्म्य बहुत सुन्दर था। इस प्रकार बहुत ही सटीक और सार्थक परिचर्चा के साथ प्रथम सत्र सम्पन्न हुआ।
द्वितीय सत्र में काव्य गोष्ठी का शुभारम्भ करते हुए बिनोद गिरि अनोखा ने 'दर्द सीने में मैं तो छुपाता रहा' मुक्तक प्रस्तुत किया तो संतोष रजा ग़ाज़ीपुरी ने अपनी गज़ल 'किसी सूरज को यार दीया दिखाने से क्या होगा' को प्रस्तुत करके श्रोताओं की वाहवाही बटोरी। डाॅ. सुमन लता जी ने बसन्त ऋतु पर अपनी रचना 'करील कुंजों से गूंज रही/वेणु वादन की अजस्त्र धारा' का पाठ किया, वहीं पर सुनीता लुल्ला ने छोटी बहर की उम्दा गज़ल 'क्या पता कैसी सदी थी, मैं न था/बात मिसरी की डली थी, मैं न था' प्रस्तुत कर सभी को आनंदित कर दिया। प्रदीप देवीशरण भट्ट ने अपनी गज़ल 'तेरी बातों में होता था गीलापन/फिर क्यूं दिखलाया तूने ये खुश्क चमन' को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया। कटक, उड़ीसा से गोष्ठी में सम्मिलित सुश्री रिमझिम झा ने अपनी रचना 'इस मृदुला धरणी का मैं कैसे गुणगान करूं' रचना का पाठ किया। काव्य गोष्ठी में विशेष अतिथि के रूप में शामिल गीता अग्रवाल ने शब्दों की महिमा पर अपनी रचना 'शब्दों की दुनिया अपरम्पार, शब्दों से ही बसा संसार' सुनाकर सबको भावविभोर कर दिया। उनके साथ के.पी.अग्रवाल ने भी श्रोता के रूप में गोष्ठी में अपनी सहभागिता दर्ज कराई। ज्योति नारायण ने बसन्त ऋतु पर
'वीणापाणी ने किए मन के झंकृत तार/मोह रही है सृष्टि को धरती कर शृंगार' अपने मनोरम दोहे प्रस्तुत किए। गोष्ठी में दर्शन सिंह ने भी अपनी रचना का पाठ किया। अन्त में अध्यक्ष ने अपनी रचना 'सखी बसन्त आया/मेरे द्वारे फागुन आया' का पाठ करते हुए अपनी रचना के माध्यम से बसन्त ऋतु में आने वाले त्यौंहारों की जानकारी दी। ज्योति नारायण के धन्यवाद ज्ञापन के साथ बहुत ही सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में गोष्ठी सम्पन्न हुई।

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