नवीन माथुर पंचोली
झूठ जबअपना सिला देता है।
आईना सच से मिला देता है।
आदतन मैं नहीं पीता उतनी,
ग़म मुझे उतनी पिला देता है।
लाख कोशिश थी भुलाने की,
नाम वो याद दिला देता है।
बागबाँ जानता है कि अक़्सर,
वक़्त हर गुल को खिला देता है।
ताप भीतर कोई पलने वाला,
ख़ुद जमीं तक को हिला देता है।
हाल ये है मिरी वफ़ाई का,
वो मुझे शिक़वा-गिला देता है।
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