शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'
शहरों में हैं,
पर शहरों की चकाचौंध से,
अभी अछूते हैं ।
जिसका है घरबार न उसका
आसमान घर है,
मौसम की इस शीत लहर का
असमंजस, डर है,
मजदूरी के,
कई अभावों की छानी के
छप्पर चूते हैं ।
दिल्ली के उन राजपथों से
मिलती पगडण्डी,
खपरैलों से छाई छत की
फटेहाल बंडी,
देखा भी है,
कई प्रेमचंदों के पग में,
फटहे जूते हैं ।
गरमाहट के लिए न आते
किरणों के हीटर,
बिन बिजली उपभोग दौड़ते,
बिजली के मीटर,
घासफूस की,
झोंपड़ियों के छेद बूँद का
आँचल छूते हैं ।
धुँधलेपन की इस बस्ती की
देह पियासी है.
रामराज्य के व्याकरणों की
भूख उदासी है,
नई नीतियाँ
सब विकास की, कहाँ रुकी हैं?
किसके बूते हैं?
शहरों में हैं,
पर शहरों की चकाचौंध से,
अभी अछूते हैं ।
जिसका है घरबार न उसका
आसमान घर है,
मौसम की इस शीत लहर का
असमंजस, डर है,
मजदूरी के,
कई अभावों की छानी के
छप्पर चूते हैं ।
दिल्ली के उन राजपथों से
मिलती पगडण्डी,
खपरैलों से छाई छत की
फटेहाल बंडी,
देखा भी है,
कई प्रेमचंदों के पग में,
फटहे जूते हैं ।
गरमाहट के लिए न आते
किरणों के हीटर,
बिन बिजली उपभोग दौड़ते,
बिजली के मीटर,
घासफूस की,
झोंपड़ियों के छेद बूँद का
आँचल छूते हैं ।
धुँधलेपन की इस बस्ती की
देह पियासी है.
रामराज्य के व्याकरणों की
भूख उदासी है,
नई नीतियाँ
सब विकास की, कहाँ रुकी हैं?
किसके बूते हैं?
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